Book Title: Sanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 642
________________ जो वासनाओके प्रवाहमे बहकर भोगोमे अपनेको डुवा देता है, वह व्यक्ति समाज के लिए भी अभिशाप बन जाता है । भोगाधिक्यसे रोग उत्पन्न होते हैं, कार्य करनेकी क्षमता घटती है और समाजकी नीव खोखली होती है । अतएव सामाजिक विकासके लिए वासनाओको नियंत्रित कर ब्रह्मचर्यं या स्वदा रसन्तोपकी भावना अत्यावश्यक है । ब्रह्मचर्य - साधना के दो रूप सम्भव है -- (१) वासना ओपर पूर्ण नियन्त्रण और (२) वासनाओका केन्द्रीकरण । समाजके बीच गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए वासनाओ पर पूर्ण नियन्त्रण तो सबके लिए सम्भव नही, पर उनका केन्द्रीकरण सभी सदस्यो के लिए आवश्यक है । केन्द्रीकरणका अर्थ विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए समाजकी अन्य स्त्रियोको माता, बहिन और पुत्रीके समान समझकर विश्वव्यापी प्रेमका रूप प्रस्तुत करना । यहाँ यह विशेषरूपसे विचारणीय है कि अपनी पत्नीको भी अनियन्त्रित कामाचारका केन्द्र बनाना व्रतसे च्युत होना है । एकपत्नीव्रतका आदर्श इसीलिए प्रस्तुत किया गया है कि जो आध्यात्मिक सन्तोष द्वारा अपनी वासनाको नहीं जीत सकते, वे स्वपत्नीके ही साथ नियन्त्रितरूपसे काम-रोगको शान्त करें । आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए इच्छाओपर नियन्त्रण रखना परमावश्यक है । सामाजिक और आत्मिक विकासकी दृष्टिसे ब्रह्मचर्य शब्दका अर्थ ही आत्माका आचरण है । अत केवल जननेन्द्रिय-सबधी विपयविकारोको रोकना पूर्ण ब्रह्मचर्य नही है । जो अन्य इन्द्रियोके विषयोके अधीन होकर केवल जननेन्द्रियसवघी विषयोके रोकनेका प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न वायुकी भीत होता है । कानसे विकारकी वातें सुनना, नेत्रोसे विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तुएं देखना, जिह्वासे विकारोत्तेजक पदार्थों का आस्वादन करना और घ्राणसे विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थोको सूधना ब्रह्मचर्य के लिए तो बाधक है हो, पर समाज हितकी दृष्टिसे भो हानिकर है । मिथ्या आहार-विहारसे समाजमे विकृति उत्पन्न होती है, जिससे समाज अव्यवस्थित हो जाता है । सामाजिक अशान्तिका एक बहुत बडा कारण इन्द्रियसवधी अनुचित आवश्यकताओकी वृद्धि है । अभक्ष्य भक्षण भी इसी इन्द्रियकी चपलताके कारण व्यक्ति करता है । वस्तुत सामाजिक दृष्टिसे ब्रह्मचर्य - भावनाका रहस्य अधिकार और कर्त्तव्य के प्रति आदर - भावना जागृत करना है । नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनो विरोधी हैं । ब्रह्मचर्य की भावना स्वनिरीक्षण पर जोर देती है, जिसके द्वारा नैतिक जीवनका आरम्भ होता है । सामाजिक और राष्ट्रीय जीवनमें सगठन-शक्तिकी जागृति भी इसके द्वारा होती है । सयमके अभावमे समाजकी व्यवस्था सुचारू रूप से नही की जा सकती । यत सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता है । प्राय. ५९२ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा

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