Book Title: Sanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रेम आत्माको गहराइयोंमे विद्यमान रहता है । यह ऐसा रत्न-दीपक है जो परिस्थितियोके झंझावातोसे वुझता नही और न स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियोके प्रभाब ही इसपर पडते है । यह ऐसी शक्ति है जो पृथ्वीको स्वर्ग बनाती है। शरीरके साथ मन और आत्माको सबल करती है । प्रेम पवित्रतम सम्बन्ध है और है जीवनकी अमूल्य निधि।
परिवारके समस्त गुणोका विकास प्रेमके द्वारा ही होता है। समस्त सदस्योको एकताके सूत्रमे यही आवद्ध करता है। सच्चा प्रेम आत्मा और शरीरका मिलन है। पत्नी निस्वार्थभावसे पतिको प्रेम करती है और पति पत्नीको प्रेममे कुछ पानेकी भावना नही रहती ।यही एक ऐसा गुण है, जो सहस्र प्रकारके कष्टोको सहन करनेके लिए व्यक्तिको प्रेरित करता है। दो व्यक्तियोके बीचके ऐकान्तिक सम्बन्धको प्रेम स्थायित्व प्रदान करता है। अत विवाहका उद्देश्य प्रेमके द्वारा स्थायित्व और पूर्णताको प्राप्त होता है। विवाहित जीवनका लक्ष्य प्राकृतिक वासनाको पूर्ण करना ही नही है, अपितु आत्माके लिए त्यागका मार्ग प्रस्तुत करना है। प्रेमको भावनाके कारण मनुष्यका उत्सुक चित्त नये उत्साहके साथ अनुभवोको ग्रहण करता है। सभी इन्द्रिया तीव्रतर आनन्दसे पुलकित हो जाती हैं । मानो किसी अदृश्य आत्माने ससारके सव रगोको नया कर दिया हो और प्रत्येक जीवित वस्तुमे नवजीवन भर दिया हो ।
प्रेम ही पश और मनुष्यके भेदको स्थापित करता है। यही जीवनमे चारुता, सुन्दरता और लालित्यको उत्पन्न करता है । एक मानवका दूसरे मानवके प्रति प्रेमसे बढकर आनन्दका अन्य कोई सुनिश्चित और सच्चा साधन नही है। प्रेम ही टूटने हुए हृदयोको जोडता है और उत्पन्न हुए तनावोको कम करता है । मानवीय गुणोका विकास प्रेम द्वारा ही होता है। अतएव परिवारको आदर्श, प्रतिष्ठित और समाजोपयोगी बनानेके लिए निस्वार्थ प्रेमकी आवश्यकता है। यह जिस प्रकार एक परिवारके सदस्योमे एकता उत्पन्न करता है उसी प्रकार समाजके घटक विभिन्न परिवारोमे भी एकत्वकी स्थापना करता है। परिवारके सदस्य साथ-साथ रहते है, भोजन-पान करते हैं, मनोरञ्जन करते हैं और अपनेअपने कार्योका सुचारु रूपसे सचालन करते है, इन समस्त कार्यों के मूलमे प्रेम हो बन्धनसूत्र है। पारस्परिक विश्वास
परिवारके प्रति ममता, स्नेह, भक्ति और दायित्वका विकास पारस्परिक विश्वास द्वारा ही होता है । यदि परिवारके सभी सदस्य परस्परमे आशकित और भयभीत रहे, तो योग-क्षेमका निर्बाह सभव नहीं। कर्त्तव्यकी प्रेरणाका
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५५५

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