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जैन पूजा पाठ सप्रह
नेत्रोन्मीलिविकाशभावनिवहैरत्यन्तवोधाय वै।
वार्गधाक्षतपुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपः फलैः ॥ यश्चितामणिशुद्धभावपरमज्ञानात्मकैरर्चयेत् ।
सिद्ध स्वादुमगाधवोधमचल सञ्चर्चयामो वयम् ॥६॥ हममें आठों दोष, जजहं अर्घ ले सिद्धजी।। दीज्यो वसु गुण मोय, कर जोड़े सेवक खड़ो ॥ अर्घ० ॥
तीस चोवीसका अर्घ द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ करमें नवीना है। पूजते पाए छीना है, भालुसल जोर कीना है। दीप अढाई सरल राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै । सात शत बील जिन राजै, पूजतां पाप सब भाजै ॥ ॐ ही पाच भरत पांच ऐरावत दश क्षेत्रके विर्षे तीस चौवीसीके सातमौ बीस जिन विम्वेभ्योऽर्घ निर्वपार्माति स्वाहा ॥ १ ॥
सोलह कारण का अर्घ जल फल आठों द्रव्य चढ़ाय, द्यानत' बरत करो मनलाय ।
परस गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरश विद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो॥१॥
ॐ ही दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलवतेष्वनतीचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, स वेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अरहतभक्ति, भाचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचन वात्सल्य पोहसकारणेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।