Book Title: Samvegrati
Author(s): Prashamrativijay, Kamleshkumar Jain
Publisher: Kashi Hindu Vishwavidyalaya

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Page 6
________________ सभी समनस्क प्राणियों की प्रत्येक क्रिया मन और देह की संयुक्त क्रिया है । भारतीय दर्शनों के अनुसार मन या अन्तःकरण जड़ है, अतः यहाँ चेतन और अचेतन के सम्बन्ध का विचार आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का विचार है। यहाँ भी चार्वाक और अद्वैत वेदान्त एक ही तत्त्व मानते हैं, अतः यह प्रश्न उनसे भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रखता । चार्वाक के अनुसार चेतना अचेतना का ही एक विशिष्ट आगन्तुक गुण है। अद्वैत वेदान्त चेतन पर अचेतन का आरोप मानता है। मूल में एक ही तत्त्व हो और जगत में अनुभूयमान चेतन और अचेतन के विकार हों तो मूल तत्त्व चेतन हो या अचेतन कोई तात्त्विक अन्तर नहीं पड़ता । अद्वैत पर यह भी प्रश्न है यदि केवल चेतन का अस्तित्व है, तो वह अचेतन के रूप में अपने विरोधी की सर्जना क्यों व किस प्रकार करता है ? विद्वान दार्शनिकों के अनुसार विश्व के निर्माण का एक मूल तत्त्व मान लेने पर अनेक सामंजस्य निर्मित होते हैं। चेतन और अवचेतन में से किसी को भ्रम नहीं कहा जा सकता । साथ ही द्वैत के बिना अद्वैत तक नहीं पहुँचा जा सकता । अस्तु, चेतन और अचेतन के सम्बन्ध की व्याख्या का दायित्व द्वैतवादी दर्शनों पर है। इनमें न्यायवैशेषिक चेतना को आत्मा का इन्द्रियादि के संयोग से उत्पन्न आगन्तुक गुण ही मानते हैं, जो मुक्तावस्था में नष्ट हो जाता है । अतः चार्वाक से इनका अन्तर मात्र यही है कि वे चेतना का आधार आत्मा नामक एक अभौतिक तत्त्व मानते हैं। द्वैतवादी सांख्य के अनुसार निष्क्रिय चेतन पुरुष और सक्रिय अचेतन प्रकृति दोनों पूर्णतया स्वतन्त्र और भिन्न द्रव्य है । इन दोनों का संयोग अन्धपंगुवत् है । पुरुष निष्क्रिय सचेतन होने से पंगु, प्रकृति सक्रिय अचेतन होने से अन्धी है। दोनों को सप्रयोजन संयोग की अपेक्षा है । परन्तु पुरुष की पूर्ण निष्क्रियता से अनेक कठिनाईयाँ उपस्थित हुई है। पूर्ण निष्क्रियता अनस्तित्व की तरह हो जाती है। अतः यहाँ भी दोनों के सम्बन्ध का कोई समीचीन उत्तर नहीं मिलता ।। जैनदर्शन द्वैतवादी और अनेकान्तवादी दर्शन है । इसका केन्द्रीय सिद्धान्त है कि वस्तुओं में ही विविधता नहीं है, अपितु प्रत्येक वस्तु में भी धर्मों का वैविध्य है । यह वैविध्य विरोधी धर्मों के साथ विद्यमान है । संसार के षड़ द्रव्यों में भिन्नता के साथ कदाचित् अभिन्नता है । सभी लोकाकाश में स्थित होने से परस्पर सम्बन्ध भी है । पूर्ण विरोध या पूर्ण भेद तभी सम्भव है, जब एक वस्तु अस्तित्ववान हो और दूसरी अस्तित्वहीन हो । अस्तित्वहीन कोई वस्तु नहीं होती । जैनों की अनेकान्त दृष्टि ने सम्बन्ध की समस्या का उचित समाधान दिया है कि सम्बन्ध न तो सर्वथा अभिन्न वस्तुओं में सम्भव है और न सर्वथा भिन्न वस्तु में । सम्बन्ध के लिए भेदाभेद दोनों आवश्यक है। इस अनेकान्त दृष्टि से ही जैन, आत्मा और पुद्गल की

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