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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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जिस श्रावकने (सावद्य आरम्भादि कार्य द्वारा) बहुत कर्म बांधे हुए हैं फिर भी वह श्रावक इस छ आवश्यक द्वारा अल्प समय में दुःखों का अंत करता है । (४१)
__ (विस्मृत हुए कर्मोका अतिचार) आलोअणा बहुविहा, न य संभरिआ पडिक्कमणकाले;
मूलगुण उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि । (४२) (पाँच अणुव्रतरूप) मूलगुण व (तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत रूप) उत्तरगुण संबंधी बहुत प्रकार की आलोचना होती है वे सब प्रतिक्रमण के समय याद नहीं आई हो उनकी यहाँ मैं निंदा करता हूँ, मैं गर्दा करता हूँ | (४२)
अब पैर नीचे करके या दाया चूंटना नीचे करके बोलो (जैसे पापोकी निंदा करते करते आत्मा भारहीन हुआ ऐसी भावनासे खडे होना) तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स, अब्भुट्टिओ मि
आराहणाओ, विरओ मि विराहणाए तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं । (४३) मैं केवली भगवंतो द्वारा प्ररूपित (गुरुसाक्षी से स्वीकृत) श्रावक धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ और विराधना से विरत हुआ हूँ । अतः मन वचन और काया द्वारा संपूर्ण दोषों से/पापों से निवृत्त होता हुआ चोबीसो जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ | (४३) (अब्भुठिओमि बोलते खडे होकर, योग मुद्रा में शेष सुत्र बोलना )
(सर्व चैत्यवंदन) जावंति चेइआई, उड्डे अ अहे अतिरिअ लोए अ सव्वाई ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई । (४४)