Book Title: Samvatsari Pratikraman Hindi
Author(s): Ila Mehta
Publisher: Ila Mehta

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Page 357
________________ ३०२ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित गुणोसे युक्त), जीवों में श्रेष्ठ कमल समान को, (कर्मपंकभोगजल से निर्लेप रहने से ), जीवों में श्रेष्ठ गंधहस्ती समान को (अतिवृष्टि आदि उपद्रव को दूर रखने), (३) सकल लोक में गजसमान, भव्यलोक में (विशिष्ट तथा भव्यत्व से) उत्तम, चरमावर्त प्राप्त जीवों के नाथ को (मार्ग का 'योग-क्षेम 'संपादन-संरक्षण करने से ), पंचास्तिकाय लोक के हितरूप को ( यथार्थ - निरुपण से), प्रभुवचन से बोध पानेवाले संज्ञि लोगों के लिए प्रदीप (दिपक) स्वरुप को, उत्कृष्ट १४ पूर्वी गणधर लोगों के संदेह दूर करने के लिए उत्कृष्ट प्रकाशकर को । (४) 'अभय' - चित्तस्वास्थ्य देनेवालों को, 'चक्षु' धर्मदृष्टि-धर्म आकर्षण उपचक्षु देनेवालों को, 'मार्ग' कर्मके क्षयोपशमरुप मार्ग दिखानेवाले, 'शरण' - तत्त्वजिज्ञासा देनेवालों को, 'बोधि ' तत्त्वबोध (सम्यग्दर्शन) के दाता को । (५) चारित्रधर्म के दाता को, धर्म के उपदेशक को, (यह संसार जलते घर के मध्यभाग के समान है, धर्ममेघ ही वह आग बुझा सकता है... ऐसा उपदेश), धर्म के नायक (स्वयं धर्म करके औरों को धर्म की राह पर चलानेवालों) को, धर्म के सारथि को (जीव-स्वरुप अश्व को धर्म में दमन - पालन - प्रवर्तन करने से ), चतुर्गतिअन्तकारी श्रेष्ठ धर्मचक्र वालों को (६) अबाधित श्रेष्ठ (केवल ) - ज्ञान - दर्शन धारण करनेवाले, छद्म (४ घातीकर्म) नष्ट करनेवाले. (७) राग-द्वेष को जीतनेवाले और दूसरोको जितानेवाले और अज्ञानसागर को तैरनेवाले और तैरानेवाले, पूर्णबोध पानेवाले और प्राप्त करानेवाले, मुक्त हुए और मुक्त करानेवाले . (८) सर्वज्ञ-सर्वदर्शी,उपद्रवरहित स्थिर अरोग अनंत (ज्ञानवाले)

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