Book Title: Samvatsari Pratikraman Hindi
Author(s): Ila Mehta
Publisher: Ila Mehta

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Page 385
________________ ३३० श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित अचानक मुख में कोई चीज प्रवेश करे वह), सागारिकाकार (गृहस्थादि की नजर लगने से मुनि को एकासणादि में से उठना पडता है वह), आकुंचन-प्रसारण (हाथ-पैर आदी अंगों का सिकोडना आदि), गुरु-अभ्युत्थान (बडे गुरुजी आये तब उनके प्रति मान-सन्मान बनाये रखने के लिए एकासणादि में खड़े होना आदि), पारिष्ठापनिकाकार (विधि करके ग्रहण किया हुआ आहार धराने योग्य हो (यो गुरु भगवंत की आज्ञा से) उसका इस्तेमाल करना वह), महत्तराकार (बडी कर्मनिर्जराकी वजह आना वह) एवं सर्व-समाधि-प्रत्याकार (किसी भी तरीके से समाधि नहीं ही रहती तब ) पूर्वक त्याग करते है (करता हुँ) । अचित जल के छह आगार लेप (ओसामण आदि लेप से बना हुआ (बरतनमें लेप रहता है वह) जल आदि) अलेप (कांजी (छाशकी आसका पानी) का अलेपकृत जल आदि), अच्छ (तीन काढ़ा वाला निर्मल गरम जल आदि), बहुलेप (चावल-फल आदिको धोना, जो बहुलेपकृत जल होता है वह), ससिक्थ (दानें के साथ अथवा आँटे के कण के साथ जल आदि एवं असिक्थ (कपड़े से छाना हुआ दानें या आट के कण वाला जल आदि) का त्याग करत है (करता हुँ)। एकासगुं-बियासणुं-अकलठाणुं नीवि एवं आयंबिलके पच्चक्खाण पारने का सूत्र अर्थ सहित उग्गए सूरे नमुक्कार सहिअं, पोरिसिं, साड्डपोरिसिं, सूरे उग्गे पुरिमढे, अवटुं, मुट्ठिसहि पच्चक्खाण

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