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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
महावीर स्वामी का आगमसमुद्र जो ज्ञानसे गंभीर है, सुंदर पदरचनारुपी जल समूहसे मनोहर है, जीवदया संबंधी सूक्ष्मविचारोरुप भरपूर लहरो से जिसमे प्रवेश दुष्कर है, चूलिकारुप भरतीवाला है, उत्तम आलापकरुपी रत्नोसे व्याप्त और अति कठिनतापूर्वक पार पाये जानेवाले है, उसकी मैं आदरपूर्वक उपासना करता हूँ । (३)
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प्रतिक्रमणके पूर्णाहुतिके हर्षोल्लास दर्शाने के लिए यह स्तुति स्त्रीओं को बोलनी है । प्रथम तीन गाथाएं, देवसिअं और राई प्रतिक्रमणमें श्राविकाए बोलती है । चतुर्विध संघ पाक्षिक, चार्तुमासिक और संवत्सरी प्रतिक्रमण सज्झायके बदले उवस्सग्गहरं सूत्र पूर्वक यह स्तुतिका उपयोग करते है ।
यह स्तुतिकी रचना श्री हरिभद्रसूरिने की है । उन्होंने १४४० ग्रंथोकी रचना की । जब चार ग्रंथ बाकी रहे तब उन्होंने 'संसारदावानल' की रचना की । परंतु चौथी गाथा का पहला चरण उनके हृदयके अभिप्रायके अनुसार संघ पूरा किया । तबसे 'झंकाराराव' शब्दोसे बाकीका चरण समग्र संघ उंचे स्वरसे बोलते है ।
(पछी योग मुद्रामें 'नमुत्थुणं' कहना )
श्री तीर्थंकर परमात्माकी उनके गुणो द्वारा स्तवना
नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं (५) आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं (२) पुरिसुत्तमाणं, पुरिस - सीहाणं,
पुरिस-वर- पुंडरी आणं, पुरिस-वरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं, लोग - नाहाणं, लोग-हिआणं, लोग-पईवाणं, लोग - पज्जो अगराणं. (४) अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं,
सरणदयाणं, बोहिदयाणं. (५)
धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं,
(३)