Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ छट्ठो भवो] ४५६ सुकुमालमिउफंसेण उत्तरीएण पच्छाइयपओहरा मुत्तावलीविहूसियाए सिरोहराए रुटतमयरुप्फुल्लगहिय कमला धवलकरिवरेहि दिव्वकंचणकलसेहि अहिसिच्चमाणा सिरीवयणेणमयरं पविसमाणि त्ति। तओ तं दठूण विद्धा एसा । साहिओ तीए हरिस निम्मराए दइयस्स। भणिया यण-सुंदरि, सिरिनिवासो ते पुत्तो भविस्सइ। पडिस्सुथमिमीए । तओ विसे सेण तिवग्गसंपायणरयाए अइक्कंतो कोइ कालो। पत्तो पसूइसमओ। पसूया य एसा, जाओ से दारओ, निवेइओ परितोसनामाए चेडियाए बंधुदत्तस्स। परितुट्ठो एसो। दिन्नं तोए पारिओसियं । कयं उचियं करणिज्ज । अइक्कंतो मासो दारयस्स । पइट्ठावियं च से नामं पियामहस्त सतियं धरणो ति । पत्तो कुमारभावं, गाहिओ कलाकलावं । निम्माओ य तत्व पयाणुसारी संवुत्तो।। एत्यंतरम्मि सो विजयजीवनारओ तो नरयाओ उध्वट्टिऊण पुणो संसारमाहिडिय अणंतरभवे तहाविहमणुढाणं काऊण तीए चेव नयरीए कत्तियस्स सेटुिस्स जयाए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववन्नो त्ति। जाया कालक्कमेण । पइटावियं च से नाम लच्छित्तिा पत्ता य जोदणं । रीयेण प्रच्छादितपयोधरा मुक्तावलिविभूषितशिरोधरया [विभ्राजमाना रवन्मधुकरोत्फुल्लगृहीतकमला धवलकरिवराभ्यां दिव्यकाञ्चनकलशाभ्यामभिषिच्यभाना श्रीर्वदनेनोदरं प्रविशन्तीति। ततस्तां दृष्ट्वा विबुद्धषा । कथितस्तया हर्षनिर्भरया दयिताय। भणिता च तेन--सुन्दरि! श्रीनिवासस्ते पुत्रो भविष्यति । प्रतिश्रुतमनया। ततो विशेषेण त्रिवर्गसम्पादन रताया अतिक्रान्तः कोऽपि काल: । प्राप्तः प्रसूतिसमयः । प्रसूता चैषा, जातस्तस्य दारकः, निवेदितः परितोषानाम्न्या चेटिकया बन्धुदत्ताय । परितुष्ट एषः। दत्तं तस्यै पारितोषिकम् । कृतमुचितं करणीयम् । अतिक्रान्तो मासो दारकस्य । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम पितामहस्य सत्कं धरण इति । प्राप्तः कुमारभावम् , ग्राहितः कलाकलापम् । निर्मायश्च तत्र पदानुसारी संवृत्तः । अत्रान्तरे स विजयजीवनारकः ततो नरकावृत्य पुनः संसारमहिण्डय अनन्तरभवे तथाविधमनुष्ठानं कृत्वा तस्यामेव नगर्यां कार्तिकस्य श्रोष्ठिनो जयाया भार्यायाः कुक्षौ स्त्रीतय पपन्न इति । जाता कालक्रमेण। प्रतिष्ठापितं च तस्या नाम लक्ष्मीरिति । प्राप्ता च यौवनम् । अचिन्तकी माला से विभूषित ग्रीवा से शोभायमान होती हुई, गुंजायमान भौंरों से युक्त, विकसित कमल को ग्रहण किये हुए, सफेद दो श्रेष्ठ हाथियों के द्वारा दिव्य स्वर्णकलशों से अभिषिक्त होती हुई लक्ष्मी को मुख से उदर में प्रवेश करते हुए देखा । अनन्तर उसको देखकर यह जाग उठी । अति हर्ष से युक्त होकर उसने पति से कहा । पति ने कहा-'सुन्दरी ! लक्ष्मी का जिसमें निवास है, ऐसा तुम्हारा पुत्र होगा।' इसने सुना। इसके बाद विशेष रूप से धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग में रत रहते हुए कुछ समय व्यतीत हुआ। प्रसव का समय उपस्थित हुआ। प्रसव के फलस्वरूप उसके बालक उत्पन्न हुआ। परितोषा नामक दासी ने बन्धुदत से जाकर निवेदन किया। यह सन्तुष्ट हआ और उस (दासी) के लिए पारितोषिक दिया। उचित कृत्यों को किया। बालक का मास व्यतीत हुआ। पितामह के समान उसका नाम 'धरण' रखा गया । (वह) कुमारावस्था को प्राप्त हुआ (तथा उसने) कलाओं के समह को ग्रहण किया। वहां पर मायारहित अपने स्थान पर रहता हआ सदाचारी हआ (युवराज हुआ)। - इसी बीच वह विजय का जीव नारकी उस नरक से निकल कर पुन: संसार में भ्रमण कर बाद के भव में उसी प्रकार का अनुष्ठान करके उसी नगरी में कार्तिक श्रेष्ठी की जया नामक भार्या के गर्भ में स्त्री के रूप में आया। कालक्रम से उसका जन्म हुआ। उसका नाम लक्ष्मी रखा गया। वह यौवन को प्राप्त हुई । कर्म का १. महुयरफुल्ल-ख, २. परिहरिस-क, ३. तेण-क, ४. पियामहसतियं-क । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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