Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ ४६४ [समराइच्चकहा विन्नासो' ति चितिऊण भणियं विज्जाहरेण-भो, सुण ! अहं खु वेयड्ढपव्वए अमरपुरनिवासी हेमकुंडलो नाम विज्जाहरकुमारो अणब्भत्थविज्जो सयनिओयपरो तत्थेव चिट्ठामि, जाव समागओ तायस्स परममित्तो विज्जुमालौ नाम विज्जाहरो। भणिओ यताएण-कुओ तुमं, कोस वा विमणदुम्मणो दीससि । तेण भणियं-विझाओ अहं । विमणदुम्मणत्त पुण इमं कारणं । दिळं मए विझाओ इहागच्छमाणेण उज्जेणीए निव्वेयकारणं। ताएण भणियं-कीइसं निवेयकारणं । विज्जुमालिणा भणियं-सुण! ___ अस्थि उज्जेणीए सिरिप्पहो नाम राया। तस्स रूविणि व्व कुमाउहवेजयंती जयसिरी नाम धूया । सा य पत्थेमाणस्स वि न दिन्ना कोंकणरायपुत्तस्स सिसुवालस्स, दिन्ना य इमेण वच्छेसरसुयस्स परोवपार करणेक्कलालसस्स सिरिविजयस्स । कुविओ सिसुवालो । आगओ जयसिरिविवाहनिमित्तं सिरिविजओ। तओ पारद्धे महाविभूईए विवाहमहूसवे निग्गया मयणवंदणनिमित्त समालोचिय विहाएणमवक्खंदं दाऊणं अवहरिया सिसुवालेग जयसिरी । उट्ठाइओ" कलयलो। विन्यासः' इति चिन्तयित्वा भणितं विद्याधरेण-भोः ! शृणु । अहं खलु वैताढ्यपर्वतेऽमरपुरनिवासी हेमकुण्डलो नाम विद्याधरकुमारोऽनभ्यस्तविद्यः स्वनियोगपरस्तत्रैव तिष्ठामि, यावत् समागतस्तातस्य परममित्रं विद्युन्माली नाम विद्याधरः । भणितश्च तातेन-कुतस्त्वम्, कस्माद् वा विमनस्कदुर्मनस्को दृश्यसे । तेन भणितम् - विन्ध्यादहम्, विमनोदुर्मनस्त्वे पुनरिदं कारणम् । दृष्टं मया विन्ध्यादिहागच्छता उज्जयिन्यां निर्वेदकारणम् ।तातेन भणितम्- कीदृशं निर्वेदकारणम् । विद्युन्मालिना भणितम् --शृणु ! अस्त्युज्जयिन्यां श्रीप्रभो नाम राजा । तस्य रूपिणीव कुसुमायुधवैजयन्ती जयश्री म दुहिता। सा च प्रार्थयमानस्यापि न दत्ता कोकणराजपुत्रस्य शिशुपालस्य, दत्ताऽनेन वत्सेश्वरसुतस्य परोपकारकरणकलालसस्य श्रीविजयस्य । कुपितः शिशुपालः । आगतो जयश्रीविवाहनिमित्त श्रीविजयः। ततः प्रारब्धे महाविभूत्या विवाहमहोत्सवे निर्गता मदनवन्दननिमित्त समालोच्य विहायसाऽवस्कन्दं दत्त्वाऽपहृता शिशुपालेन जयश्रीः । उत्थितः कलकलः । ज्ञातो वृत्तान्तः श्रीविजयेन । लग्नो मार्गतः । का विन्यास !'- ऐसा सोच कर विद्याधर ने कहा- "आप सुनिए, मैं वैताढ्य पर्वत पर स्थित अमरपुर का निवासी हेमकुण्डल नामक विद्याधर कुमार, जिसने विद्या का अभ्यास नहीं किया है, अपने कार्य में लगा हुआ तब तक ठहरूंगा जब तक पिता जी के परममित्र विद्यु-माली विद्याधर आते हैं।" पिताजी ने कहा-तुम कहाँ से आये हो खिन्न और उदास क्यों दिखाई दे रहे हो ?" उसने कहा--"मैं विन्ध्य से आया हूँ, खिन्न और उदास होने का यह कारण है-मैंने विप से यहाँ आते हए उज्जयिनी में वैराग्य का कारण देखा।" पिताजी ने कहा-"कैसा वैराग्य का कारण ?' विद्युन्माली ने कहा - "सुनिए ! उज्जयिनी में 'श्रीप्रभ' नामका राजा है। उसकी 'जयश्री' नाम की पुत्री है जो रूप में मानो कामदेव की पताका है । वह प्रार्थना किये जाने पर भी 'कोकणराज' के पुत्र 'शिशुपाल' को नहीं दी गई, उसे वत्सेश्वर के पुत्र श्रीविजय' को दिया गया, जो कि परोपकार करने की एकमात्र लालसा वाला है। शिशुपाल कुपित हो गया। जयश्री के विवाह के निमित्त श्रीविजय आया। पश्चात् भाग्य से महान विभूति से युक्त होकर विवाह महोत्सव में काम की वन्दना के निमित्त निकली हुई जयश्री को देखकर आकाशमार्ग से आक्रमणकर शिशुपाल ने जयश्री का हरण कर लिया। कोलाहल हो गया। श्रीविजय ने वृत्तान्त जाना। (उसने) शीघ्र ही (उसे) खोज १. संवुत्तो-क, २. महानिव्वेय -ख; ३. रूविन्व-क, ख । ४, सिसुगालस्स-ख, ५. इमेणसिरिप्पहनरवइणा-क, ६. मयण पूपा निमित्त', ७. उद्धाइओ-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 450