Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ ४६६ [ समराइच्चकहा हिमवंताओ। 'मा सिरिविजस्स अच्चाहियं भविस्सइ' ति पडिनियतो एण। पत्तो एवं निउज्ज, खोणयाए वेयागमणेग वीसमणनिमित्तं ओइग्णो इहइं, कयं चलणसोयं उबविट्ठो कुरवयपायवसमीवे, ठिओ महत्तमेतं, उच्चलिओ य उज्जेणि । सुमरिया गयणगामिणी विज्जा जाव अहिणवगिहीयतणेण' गमणसंभमेण य विसुमरियं मे पयं । तओ सा न वहइ त्ति उप्पाय निवाए करेमि। धरणेण भणियंभो एवं ववस्थिए को इह उवाओ। हेमकुंडलेण भणियं-नस्थि उवाओ । अओ चेव रायउत्तविणास संकाए उत्तम्मइ मे हिययं, पणस्सइ मे मई। सव्वहा न अप्पपुण्णाणं समीहियं संपज्जइ त्ति दढं विसण्णो मिह । धरणेण भणियं--भो अस्थि एस कप्पो, जं सा अन्तस्स' समक्खं पढिज्जइ । हेमकंडलेण भणियं-'अत्थि'। धरणेण भणियं--जइ एवं, ता पढ; कयाइ अहं ते पयं लहामि । तओ हेमकंडलेग 'नथि अविसओ पुरिससामथस्स' ति चितिऊण सामन्नसिद्धि काऊण पढिया विज्जा। पयाणसारित्तणेण लद्धं पयं धरणेण । साहियं हेमकुंडलस्स । परितुहो एसो । भणियं चे जेण-भो भो महापुरिस, दिन्नं तर जीवियं मम समीहियसंपायणेण रायउत्तरस, ता कि ते करेमि । धरणेण गतो हिमवत्पर्वतम् । गृहीतौषधिः । अवतीर्णो हिमवतः । ‘मा श्रीविजयस्यात्याहितं भविष्यति' इति प्रतिनिवृत्तो वेगेन । प्राप्त एतद् निकुञ्जम् । क्षीणतया वेगागमनेन विश्रमणनिमित्तमवतीर्ण इह । कृतं चरणशौचम्, उपविष्ट: कुरवकपादपसमीपे, स्थितः मुहूर्तमात्रम्, उच्चलितश्चोज्जयिनीम् । स्मृता गगनगामिनी विद्या, यावदभिनवगृहीतत्वेन गगनसम्भ्रमेण च विस्मृतं मया पदं । ततः सा न वहतीति उत्पातनिपातान् करोमि। धरणेन भणितम्-भो एवं व्यवस्थिते क इहोपायः । हेमकुण्डलेन भणितम्-नास्त्युपायः । अत एव राजपुत्रविनाशशङ्कया उत्ताम्यति मे हृदयम्, प्रणश्यति मे मतिः । सर्वथा नाल्पपुण्यानां समीहितं सम्पद्यते इति दृढं विषण्णोऽस्मि । धरणेन भणितम्-भो अस्त्येष कल्पः, यत्साऽन्यस्य समक्षं पठ्यते । हेमकुण्डलेन भणितम् –'अस्ति' । धरणेन भणितम्यद्येवं ततः पठ, कदाचिदहं तव पदं लभे। ततो हेमकुण्डलेन 'नास्त्यविषयः पुरुषसामर्थ्यस्य' इति चिन्तयित्वा सामान्यसिद्धि कृत्वा पठिता विद्या। पदानुसारित्वेन लब्धं पदं धरणेन । कथितं हेमकुण्डलाय । परितुष्ट एषः । भणितं च तेन--भो भो महापुरुष ! दत्तं त्वया जीवितं मम समीहित का कोई अनिष्ट न हो' अतः वेग से लौटा। इस निकुंज में आया। शीघ्र आने के कारण थक जाने से यहाँ उतर पड़ा। पैरों को धोया। कुरबक वृक्ष के समीप बैठ गया। क्षणभर बैठा रहा । (बाद में) उज्जयिनी के लिए चल पड़ा। आकाशगामिनी विद्या का स्मरण किया। नये रूप में ग्रहण करने तथा आकाश में चलने की घबराहट के कारण मैं एक पद भूल गया । अतः वह चल नहीं रही है, इस कारण ऊपर जाता हूँ और नीचे आता हूँ। धरण ने कहा-"अरे, ऐसी स्थिति में अब क्या उपाय है ?" हेमकुण्डल ने कहा--"उपाय नहीं है अतः राजपुत्र के विनाश की आशंका से मेरा हृदय आकुल-व्याकुल हो रहा है, मेरी बुद्धि नष्ट हो रही है । अल्प पुण्य वालों का इष्ट कार्य सब प्रकार से सम्पन्न नहीं होता है-ऐसा सोचकर मैं बहुत अधिक दुःखी हूँ।" धरण ने कहाउपाय है । क्या वह दूसरे के सामने पढ़ा जाता है ?" हेमकुण्डल ने कहा- "पढ़ा जाता हैं।" धरण ने कहा-"यदि ऐसा है तो पढ़ो, कदाचित् मैं तुम्हारे पद को ढूंढ निकालूं ।" तब हेमकुण्डल ने 'पुरुष की सामर्थ्य के बाहर की कोई बात नहीं है'-ऐसा सोच कर सामान्य सिद्धिकर विद्या को पढ़ा। पद के अनुसार धरण को पद मिल गया । (उसने) हेमकुण्डल से कहा । वह (हेम कुण्डल) सन्तुष्ट हुआ । उसने कहा-'हे हे महापुरुष ! मेरे योग्य कार्य का १, गहीयत्तणेण -क, २, अन्नाणं वि --- । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 450