Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 21
________________ ४७ १ छट्ठी भवो ] जंप | करुणापत्रेण भणि या गण आरविखया - भो भो कुलउत्तया, मम कएण विहीरह मुहुत्तयं, जाब एयमंतरेण विन्नविऊण नरवई दविणपयाणेणावि मोयावेमि एयं । तेहि भणियं - जइ एवं, तालहु होहि । तओ घेत्तूण नरिददरिसगनिमित्तं दोणारसय सहस्समुल्लं मुत्ताहलमालं गओ नरइसी । दिट्ठो य ण राया। साहिऊण वृत्तंतं विन्नत्तो चंडालमंतरेण नरवई । कओ से पसाओ । दूयसहिओ व तहस मोक्खणनिमित्तं आगओ तमुद्देसं । मोयाविओ एसो । 'तुम्भे इमल्स जीवियदायग' ति भणिऊण पूइया आरक्खिया । देवाविऊण' पाहेयं भणिओ य चंडालो । भद्द, संपाडेहि समीहियं । 'अज्ज, मा तु सा अवस्था हवउ, जीए मए चिय पओयणं' ति भणिऊण [ कथंजलिउडो खिइनिमियजाणुकरयल मुत्तिमंगो पणमिऊण सत्यबाहपुत्तं" ] गओ चंडालो | धरणो विय कइवयपयाणएहि पत्तो उत्तरावहतिलयभूयं अयलउरं नाम पट्टणं । दिट्टो य राया। बहुमन्तिओ तेणं । विभागसंपत्तीए य विक्कि नियमणेण मंडं । समासाइओ अट्टगुणो लाभो । for area aafaarयनिमित्तं चत्तारि मासे । पुष्णोयएणं च विदत्तं पभूयं दविणजायं । संखावियं एवं जल्पति । करुणाप्रपन्नेन भणितास्तेन आरक्षका :- भो भोः कुलपुत्रा ! मम कृतेन प्रतीक्षध्वं मुहूर्तम्, यावदेतदन्तरेण ( एतत्सम्बन्धेन ) विज्ञप्त नरपतिं द्रविणप्रदानेनापि मोचयाम्येतम् । तैर्भणितम् - यद्येवं ततो लघु भव । ततो गृहीत्वा नरेन्द्रदर्शननिमित्तं दीनारशतसहस्रमूल्यां मुक्ताफलमालां गतो नरपतिसमीपम् । दृष्टश्च तेन राजा । कथयित्वा वृत्तान्तं विज्ञप्तश्चण्डालान्तरेण ( चण्डालसंबन्धेन ) नरपतिः । कृतस्तस्य प्रसादः । दूतसहितश्च तस्य मोक्षणनिमित्तमागतस्तमुद्देशम् । मोचित एषः । 'यूयमस्य जीवितदायकाः' इति भणित्वा पूजिता आरक्षकाः । दापयित्वा पाथेयं भणितश्च चण्डालः । भद्र ! सम्पादय समीहितम् । 'आर्य ! मा तव साऽवस्था भवतु यस्यां ममेव प्रयोजनम्' इति भणित्वा [ कृताञ्जलिपुटः क्षितिन्यस्तजानुक रतलोत्तमाङ्गः प्रणम्य सार्थवाहपुत्रं गतश्चण्डालः । धरणोऽपि च कतिपय प्रयाणकैः प्राप्त उत्तरापथतिलकभूतमचलपुरं नाम पत्तनम् । दृष्टश्च राजा । बहु मानितस्तेन । विभागसम्पत्त्या च विक्रीतमनेन भाण्डम् । समासादितोऽष्टगुणो लाभः । स्थितस्तत्रैव पवित्रयनिमित्तं चतुरो मासान् । पुण्योदयेन चार्जितं प्रभूतं द्रविणजातम् । संख्यापितं यश में मलिनता आ रही है, अतः आप छुड़ाइए, छुड़ाइए । शुद्धचित्तवाला होने के कारण धरण ने विचार किया - 'दोष करनेवाला इस प्रकार नहीं बोलता है ।' करुणा से युक्त होकर उसने सिपाहियों से कहा -: -: "हे हे कुलपुत्र ! मेरे कहने से थोड़ी देर प्रतीक्षा करो। जब तक मैं इसके विषय में राजा से निवेदन कर धन देकर इसे छुड़ाये लेता हूँ।" उन्होंने कहा - 'यदि ऐसा है तो जल्दी करो ।" इसके बाद एक लाख दीनार वाली मुक्ताफल की माला को लेकर राजा के पास गया। उसने राजा के दर्शन किये । वृत्तान्त कहकर चाण्डाल के विषय में राजा को जानकारी दी। उसे प्रसन्न किया । दूत सहित उसको छुड़ाने के लिए उस स्थान पर आया । इसे छोड़ दिया गया । 'आप इसे जीवन देनेवाले हैं- ऐसा कहकर सैनिकों ने पूजा की। नाश्ता दिलाकर चाण्डाल से कहा"भद्र ! इच्छित कार्य पूरा कीजिए ।" 'आर्य ! आपकी वह अवस्था न हो, जिसमें मेरा ही प्रयोजन है' - ऐसा कहकर हाथ जोड़कर पृथ्वी पर घुटने टेककर, हथेली रखकर मस्तक से सार्थवाहपुत्र को प्रणाम कर चाण्डाल चला गया । धरण ने भी कुछ यात्रा कर उत्तरापथ के तिलकत अचलपुर नामक नगर को प्राप्त किया। राजा ने देखा। उसने ( उसका ) बहुत सत्कार किया । माल का विभाग कर इसने उसे बेचा। अठगुना लाभ प्राप्त हुआ । वहीं पर क्रय-विक्रय के लिए चार माह ठहरा । पुण्योदय से प्रभूत धनोपार्जन किया। उसने धन का हिसाब कराया -- १. एहिक, २. 'परिहाविऊण जुवल' इत्यधिकः क पुस्तके, ३. अयं पाठः ख - पुस्तके नास्ति, ४. 'तस्य समीवाओ काएण न वुण चित्तेन' इत्यधिकः पाठः क - पुस्तके, ५. इलाहो- -के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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