Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ [समराइच्चकहा . सोख केसरी आगओ त्ति आयण्णिय घेत्तण कोदंड' कण्णियसरं च एगागी चेव निग्गओ पल्लीओ।न दिवो य ण नग्गोहपायवंतरिओ केसरी। गओ तस्स समीवं । गहिओ य णेण पद्रिदेसे । वावाइओ तेण बलिऊण कट्टारएण' केसरी। तेण वि य से तोडियं उत्तिमंगखंडं। तओ सो 'नत्थि मे जीवियं ति मन्नमाणो जलणपवेसं काउमारद्धो। मुणिओ से एस वृत्तंतो गेहिणीए। तओ सा वि आवन्नसत्ता तं चेव काउं ववसिया, वारिया वि पल्लीवइणा न विरमइ ति। तओ तेण पेसिया अम्हे तीए संधारणत्थं पिउणो से आणयणनिमितं । वीररसपहाणो खु सो सयणवच्छलो य । तान याणामो, कि पडिवज्जिस्सइ त्ति। महादुक्खपीडिया असमत्था य धरिउ इमं सोयाइरेयं अविज्जमाणोवाया य पडिवज्जिऊण इत्थियाभावं केवलं स्यम्ह । धरणेण भणियं-भद्दा, अलं सोएण। दंसेहि मे तं पल्लीवई। कयाइ जीवावेमि अहयं । तओ चलणेसु निवडिऊण हरिसवसुप्फुल्लोयणेहिं जंपियं सवरेहि-अज्ज, एवं तुम देवावयारो विय आगईए। ता तुमं चेव समत्थो सि देवं समासासेउं । अन्नं च। जइ अम्हेसु अणुग्गहबुद्धी अज्जस्स, ता तुरियं गच्छउ अज्जो; मा तस्स महाणुभावरस अच्चाहियं __स खलु केसरी आगत इत्याकर्ण्य गृहीत्वा कोदण्डं कणिकशरं च एकाक्येव निर्गतः पल्लितः । न दृष्टश्चानेन न्यग्रोधपादपान्तरितः केसरी । गतस्तस्य समीपम् । गृहीतश्च तेन पृष्ठदेशे। व्यापादितस्तेन वलित्वा कद्रारकेन केसरी । तेनापि च तस्य तोडितमत्तमाङ्गखण्डम । ततः स 'नास्ति मे जीवितम्' इति मन्यमानो ज्वलनप्रवेशं कर्तुमारब्धः । ज्ञातस्तस्यैष वृत्तान्तो गेहिन्या। ततः साऽपि आपन्नसत्त्वा तमेव कतु व्यवसिता, वारिताऽपि पल्लिपतिना न विरमतीति । ततस्तेन प्रेषिता वयं तस्याः संधारणार्थं पितुस्तस्या आनयननिमित्तम् । वीररसप्रधानः खलु स स्वजनवत्सलश्च । ततो न जानीमः किंः प्रतिपत्स्यत इति । महादुःखपीडिता असमर्थाश्च धर्तुमिमं शोकातिरेकम्, अविद्यमानोपायाश्च प्रतिपद्य स्त्रीभावं केवलं रुदिमः । धरणेन भणितम्- भद्रा ! अलं शोकेन । दर्शय मे तं पल्लीपतिम्, कदाचिज्जीवयाम्यहम् । ततश्चरणयोर्निपत्य हर्षवषोत्फुल्ललोचनैर्जल्पितं शबरैःआर्य! एवं त्वं देवावतार इवाकृत्या। ततस्त्वमेव समर्थोऽसि देवं समाश्वासितुम् । अन्यच्च, यद्यस्मास्वनुग्रहबुद्धिरार्यस्य ततस्त्वरितं गच्छत्वार्यः, भा तस्य महानुभावस्यात्याहितं भवेत् । ततो 'वह सिंह आ गया'--ऐसा सुनकर कणिकशर और धनुष को हाथ में लेकर अकेला ही भीलों की बस्ती से निकल पड़ा । उसने वटवृक्ष के पीछे छिपे हुए सिंह को नहीं देखा । वह उसके समीप गया । उसने पीछे से उसे पकड़ लिया। उसने घूमकर कटार से सिंह को मार डाला। उस सिंह ने भी उसके शिर के एक भाग को तोड़ दिया। इसके बाद उसने 'मेरी आयु शेष नहीं है' ऐसा मानकर अग्निप्रवेश करने की तैयारी की। उसके इस वृत्तान्त को उसकी पत्नी ने भी जाना। तब उसने गर्भिणी होते हुए भी वही करने का निश्चय किया । भीलों के स्वामी द्वारा रोके जाने पर भी वह नहीं रुक रही थी। तब उसको ढाढस बंधाने के लिए उसने हमें उसके पिता को लाने के निमित्त भेजा है । वह वीर रस प्रधान तथा अपने लोगों के प्रति स्नेहयुक्त है। अतः नहीं जानते हैं वह किस अवस्था को प्राप्त हुआ होगा। अत्यधिक दुःख से पीडित और असमर्थ होकर शोक के इस आधिक्य को धारण करने में असमर्थ होकर और कोई उपाय न होने से स्त्री स्वभाव के अनुसार केवल रो पड़े । धरण ने कहा-"शोक मत करो। उस भोलों के स्वामी को मुझे दिखाओ, कदाचित् मैं उसे जीवित कर दूं।" अनन्तर चरणों में पड़ हर्ष के वश विकसित नेत्रों वाले शबरों ने कहा-"आर्य ! इस प्रकार आकृति से (आप) देवताओं के अवतार हो अत: मेरे स्वामी को जिलाने में आप ही समर्थ हो । आर्य तुरन्त चलिए, उन महानुभाव का कोई अनिष्ट न हो।" १. कोडंडं २. झुरियाए - क, ३. जीयं-क, ४. पल्लि-क, ५. -लोपणं पयंपियं-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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