Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ छ8ो भवो] मुणिओ वुत्तंतो सिरविजएणं। लग्गो मग्गओ । समासाइओ सिसुवालो। आवडियमाओहणं । गाढपहारीकएणं च जेऊण सिसुवालं नियत्तिया जयसिरी। पहारगरुययाए य सो महाणुभावो पाणसंसए वट्टए । सा वि रायधूया 'न अहमेयस्मि' अकयपाणभोयणे पाणवित्ति करेमि'त्ति वामकरयलपणामियवयणपंकया अणाचिक्खणीयं अवत्थंतरमणुहवंती दुवखेण चिट्ठइ ॥ एयं मे एत्थ कारणं । ताएण भणिय । ईइसो एस संसारो । खेल्लणयभूया ख एत्थ कम्मपरिणईए पाणिणो। ता अलं निव्वेएण । तमो मए चितियं-साहियं मे कल्लं चेव हिमवंतपव्वयगयस्स दरिहरूग्गयं महोसहिमवलोइऊण गंधवरइनामेण गंधवकुमारेण मम वयंस एण। जहा भो हेमकंडल, सच्चो ख एस लोयवाओ, जं अचितो हि मणिमंतोसहीणं पभावो ति, जओ एयाए ओसहीए एसो पहावो, जेण विदारियट्ठी वि खग्गाइपहारो' इमीए पक्खालणोयएणं पि पणट्टवेयणं तक्खणा चेव रुज्झइ ति। दिद्रुपच्चया य मए सा । ता गच्छामि अहयं हिमवंतं गेण्हिऊण तयं ओसहि उवणेमि सिरिविजयस्स। तओ सुमरिऊण कहंचि गयणगामिणि विज्जं गओ हिमवंतपव्वयं । गहिया ओसही । ओइण्णो समासादित: शिशुपालः। आपतितमायोधनम्। गाढप्रहारीकृतेन च जित्वा शिशुपाल निर्वतिता जयश्री: । प्रहारगुरुकतया च स महानुभाव: प्राणसंशये वर्तते। साऽपि राजदुहिता 'नाहमेतस्मिन्नकृतपानभोजने प्राणवृत्ति करोमि' इति वामकरतलापितवदनपङ्कजाऽनाख्यानीयमवस्थान्तरमनुभवन्ती दुःखेन तिष्ठति । एतन्मेऽत्र कारणम् । तातेन भणितम् - ईदृश एष संसारः । खेलनकभूताः खल्यत्र कर्मपरिणत्याः प्राणिनः । ततोऽलं निर्वेदेन। ततो मया चिन्तितम्-कथितं मे कल्ये एव हिमवत्पर्वतगतस्य दरीगहोद्गतां महौषधिमवलोक्य गान्धर्व रतिनाम्ना गान्धर्वकुमारेण मम वयस्येन । यया भो हेमकुण्डल ! सत्यः खल्वेष लोकवादः, यदचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव इति । यत एतस्या ओषध्या एष प्रभावः, येन विदारितास्थिरपि खङ गादिप्रहारोऽस्याः प्रक्षालनोदकेनापि प्रनष्टवेदनं तत्क्षणादेव रुह्यते इति। दृष्टप्रत्यया च मया सा । ततो गच्छाम्यहं हिमवन्तं गृहीत्वा तामोषधिमुपनयामि श्रीविजयाय । ततः स्मृत्वा कथञ्चिद् गगनगामिनी विद्यां लिया। शिशुपाल प्राप्त हुआ। (वह) योद्धा (भी) आया । (उसने) गाढ़ प्रहार से युक्त होकर शिशुपाल को जीतकर जयश्री को मुक्त करा लिया। गाढ़ प्रहार के कारण उस महानुभाव के प्राण संशय में हैं । वह राजपुत्री भी'यह जब तक भोजन-पान नहीं करेंगे, तब तक में अन्नपान ग्रहण नहीं करूँगी'- इस प्रकार बायीं हथेली पर मुखकमल रखे हए अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव करती हई दुःख से बैठी है-यही मेरे वैराग्य का कारण है।" पिताजी ने कहा--"यह संसार ऐसा ही है । प्राणियों की कर्मपरिणति खिलौने के समान है, अतः दुःखी मत होओ।" तब मैंने सोचा- "गन्धर्व रति नामक मेरे प्रिय मित्र गान्धर्वकुमार से हिमालय पर्वत की गुफा से निकली हुई औषधि को देखकर कल ही कहा था-अरे हेममण्डल ! यह लोककथन बिलकुल सत्य है कि मणि, मन्त्र और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है। इस औषधि का यह प्रभाव है कि तलवार आदि के प्रहार से टूटी हुई भी हड्डी इसके धोने से बचे हुए जल से उसी क्षण जुड़ जाती है और वेदना भी नष्ट हो जाती है। मैंने इस विश्वास को देखा है । अत: मैं हिमालय को जाता हूँ और इस औषधि को लेकर श्रीविजय के लिए लाता हूँ। अनन्तर कोई आकाशचारिणी विद्या का स्मरण कर हिमालय पर्वत पर गया । औषधि ग्रहण की। हिमालय पर्वत से उतरा । 'श्रीविजय १. नाहमेयम्मि-क, २. खलणय-क, ३, खग्गाइपहारेण-क, ४, मम एसा-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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