Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ छछो भवो] जेहि सहत्था। महियं पत्तयं । छडं पउरभंडारे । निग्गया नियपरिवारपरियरिया महया चडयरेण धरणदेवनंदी; गेण्हिऊण जहोचियं भंडं पयट्ठा देसंतरं, एगो उत्तरावह, अवरो पुव्वदेसं। एत्थं ारम्मि चितियं लच्छीए। दीहाणि देसंतराणि, सुहेण विओओ, दुक्खेण समागमो; ता न याणामो, अंतराले किमहं' पाविस्सं ति । अवावाइओ चेव विउत्तो खु एप्तो । गया य सत्थवाहपुता एगं पयाणयं । पेसियात्री य एएसि बंधुदत्तपंचनंदीहिं सरीरटिइनिमित्तमालोचिय आउच्छिऊग नयरिमहंतए सपरिवाराओ बहूओ, मिलियाओ य एएसि। पइविणपयाणएहिं च गच्छमाणाणं अइक्कंता कइवि दियहा। ___ अन्नया य परिवहते सत्थे दिट्ठो धरणेण एगम्मि वणनिउंजे अच्चंतसोमरूवो उप्पायनिवाए करेमाणो विज्जाहरकुमारओ। गओ तस्स समीवं। पुच्छिओ य एसो। भो किनिमित्तं पुण तुम असंजायपक्खो विय गरुडपोयओ महवियारोवलक्खिज्जमाणनहंगणगमणूसुओ विय उपायनिवाए करेसि। आचिक्ख, जइ अकहणिज्जं न होइ । तओ अहो से भावन्नुयया, अहो आगई, अहो वयणचाभ्यां स्वहस्तौ। मुद्रितं पत्रम्। क्षिप्तं पौरभाण्डागारे । निर्गतौ निजपरिवारपरिवृतौ महताऽऽडम्बरेण धरणदेवनन्दिनौ, गृहीत्वा यथोचितं भाण्डं प्रवृत्तौ देशान्तरम् । एक उत्तरापथम्, अपर: पूर्वदेशम्। " अत्रान्तरे चिन्तितं लक्ष्म्या--दीर्घाणि देशान्तराणि, सुखेन वियोगः, दुःखेन समागमः, ततो न जानामि, अन्तराले किमहं प्राप्स्यामि इति । अव्यापादित एव वियुक्तः खल्वेषः। गतौ च सार्थवाहपुत्रौ एक प्रयाण कम् । प्रेषिते चैतयोर्बन्धु दत्तपञ्चनन्दिभ्यां शरीरस्थिति निमित्तमालोच्य आपृच्छय नगरीमहतः सपरिवारे वध्वौ, मिलिते चैतयोः । प्रतिदिनप्रयाणकैश्च गच्छतोरतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। ___ अन्यदा च परिवहति सार्थे दृष्टो धरणेन एकस्मिन् वननिकुञ्जेऽत्यन्तसौम्यरूप उत्पातनिपातान् कुर्वन् विद्याधरकुमारः। गतस्तस्य समीपम् । पृष्टश्चैषः । भोः किनिमित्तं पुनस्त्वमसंजातपक्ष इव गरुडपोतको मुखविकारोपलक्ष्यमाणनभोङ्गणगमनोत्सुक इव उत्पातनिपातान् करोसि । आचक्ष्व यद्यकथनीयं न भवति । 'ततोऽहो तस्य भावज्ञता, अहो आकृतिः, अहो वचनपत्र को मुद्रित किया गया। (इसे) नगर के भाण्डागार (भण्डार) में डाला गया । अपने परिवार से घिरे हुए धरण और देवनन्दी बड़े ठाठ-बाट से निकले, यथोचित माल लेकर दूसरे देश को जाने को प्रवृत्त हुए। एक उत्तरापथ की ओर गया, दूसरा पूर्वदेश की ओर गया। इसी बीच लक्ष्मी ने सोचा- देशान्तर बड़े-बड़े होते हैं, सुख से वियोग होता है, दुःख से समागम होता हैं अतः नहीं जानती हूँ, बीच में मैं क्या पाऊँगी ? यह बिना मारे ही वियुक्त हो गया। व्यापारियों के दोनों पुत्र एक यात्रा पर गये । बन्धुदत्त और पंचनन्दी ने इन दोनों की औरतों को, शरीर की रक्षा के निमित्त सोच-विचार कर तथा नागरिक महापुरुषों से पूछकर परिवार सहित भेज दिया और वे जाकर उनसे मिलीं। काफिले को ले जाते हुए धरण ने वनकुंज में उछलते गिरते हुए एक अत्यन्त सौम्यरूपवाले विद्याधर कुमार को देखा । (वह) उसके समीप में गया और उससे पूछा--"आप किस कारण से जिसके पंख उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसे गरुड़ के बच्चे के समान, जिसके कि मुख से आकाश में उड़ने की उत्सुकता प्रकट हो रही है, उछल-कूद रहे हैं, यदि अकथनीय न हो तो कहो ।” अनन्तर 'अहो इसके भावों की जानकारी, अहो आकृति, अहो वचनों १. किमेत्यं अविस्मई ति-7, २. मानोचिऊ ग पुच्छि ऊग -क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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