Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ ४६२ [ समराइच्चकहा तेण-भो भो महंतया, जं तुब्भे आणवेह, तमदस्सं मए' कायव्वं । कि तु पडिबोहिओ अहं तु हिं, लज्जिओ य अत्तणो चेटिएणं, महई मे ओहावणा, आमगन्भपायं च मन्नेमि अत्ताणयं । ता एवं मे अणुग्गहं करेह। ओसारिज्जंतु एए रहवरा। गच्छामो य अम्हे इओ अज्जेव देसन्तरं । तओ संवच्छरेण जो चेव णे पहयं दविणजायं विढविऊण इहागच्छिय अहियं सप्पुरिसचेष्ट्रिय करेस्सइ तस्सेव संतिओ रहो इमीए चेव तेरसीए पविसिस्सइ वा निक्खमिस्सइ वा। चारिएहि भणिय ।अलमेइणाअभिनिवेसेण । धरणेण भणियं-न अन्नहा मे निव्वुई होइ। चारिहि भणियं-पउरामेत्थ पमाण। धरणेण भणियं-निवेएह पउराणं । देवनंदिगा भणियं-जुत्तमेयं, को एत्थ दोसो। तओ निवेइयं पउराणं । बहुमयं च तेसि । सद्दाविया य तेति जगणिजणया । साहिओ वृत्तंतो।बहुमओ व तेसि पि । तओ काराविया सवह 'न तुब्भेहि एएसि संवाहणा कायव्वा' । सद्दाविया धरणदेवनदी । समप्पियं पत्तेयं तेसि पंचदीणारलक्खपमाणं भंडमोल्लं । कयं ववत्थापत्तयं 'जो चेव एएसि संवच्छरभंतरे अहिययरदविणजाएण पोरुसं पयडइस्सइ, तस्सेष संतिएण रहनरेण गंतव्वं, न इयरस्स' । दिन्ना य महान्तः ! यद् यूयमाज्ञापयत तदवश्यं मया कर्तव्यम् । किंतु प्रतिबोधितोऽहं युष्माभिः, लज्जितइचात्मश्चेष्टितेन, महती मेऽपभावना, आमगर्भप्रायं च मन्ये आत्मानम् । तत एवं मेऽनुग्रहं कुरुत । अपसार्येतामेतौ रथवरौ । गच्छावश्चावामितोऽद्यैव देशान्तरम्। ततः संवत्सरेण य एवावयोः प्रभूतं द्रविणजातमुपायं इहागत्याधिकं सत्पुरुषचेष्टितं करिष्यति तस्यैव सत्को रथोऽस्यामेव त्रयोदश्यां प्रवेक्ष्यति वा निष्क्रमिष्यते वा। चारिकर्भणितम् - अलमेतेनाभिनिवेशेन । धरणेन भणितम्नान्यथा मे निर्व तिर्भवति । चारिकर्भणितम् - पौरा अत्र प्रमाणम्। धरणेन भणिलम्--निवेदयत पौरेभ्यः । देवनन्दिना भणितम्-युक्तमेतत्, कोऽत्र दोषः । ततो निवेदितं पौरेभ्यः। बहुमतं च तेषाम् । शब्दायितौ च तयोर्जननीजनको। कथितो वृत्तान्तः, बहुमतश्च तयोरपि । ततः कारितौ शपथं 'न युष्माभिरेतयोः संवाहना (सहायता) कर्तव्या'। शब्दायितौ धरणदेवनन्दिनौ । समर्पित प्रत्येकं तयोः पञ्चदीनारलक्षप्रमाणं भाण्डमौल्यम् । कृतं व्यवस्थापत्रम् ‘य एवैतयोः संवत्सराभ्यन्तरेऽधिकतरद्रविणजातेन पौरुषं प्रकटयिष्यते तस्यैव सत्केन रथवरेण गन्तव्यम , नेतरस्य' । दत्तौ अवश्य पालन करना चाहिए। मैं आप लोगों के द्वारा जगाया गया है तथा मुझे अपने कार्यपर लज्जा उत्पन्न हो रही है, मेरा बड़ा अनादर हुआ। मैं अपने आपको अपरिपक्व मानता हूँ। अतः मुझ पर अनुग्रह कीजिए। इन दोनों रथों को पीछे हटा दीजिए। हम दोनों यहाँ से परदेस को जाते हैं। एक वर्ष में हम दोनों में जो प्रचुर धन का उपार्जन कर यहाँ आकर सत्पुरुषों के योग्य अधिक कार्य करेगा, उसी का ही रथ इसी त्रयोदशी को प्रवेश करेगा, या निकाला जायगा।" मुखियों ने कहा- इस प्रकार की हठ मत करो।" धरण ने कहा-"अन्य प्रकार से मुझे शान्ति नहीं मिल सकती।" मुखियों ने कहा--"इस विषय में नगरनिवासी जन ही प्रमाण हैं।" धरण ने कहा-"नगरनिवासियों से निवेदन करिए।" देवनन्दी ने कहा-'यह उचित है, इसमें क्या हानि है ?" इसके बाद पुरवासियों से निवेदन किया। उन्होंने मान लिया। उन दोनों के माता-पिता को बुलाया गया । वृत्तान्त कहा गया। उन्होंने भी बात मान ली। अनन्तर प्रतिज्ञा करायी गयी----आप लोग इन दोनों की सहायता न करें। धरण तया देवनन्दी को बुलाया गया। उन दोनों में से प्रत्येक को पांच लाख दीनार प्रमाण का माल दिया गया। व्यवस्थापत्र बनाया गया कि इन दोनों में से जो एक वर्ष के अन्दर अधिक धनोपार्जन कर, पुरुषार्थ प्रकट करेगा, सम्मानपूर्वक उसी का रथ जायगा, दूसरे का नहीं। दोनों के हाथ में पत्र दिया गया। १. मे-क, २. बहुयं-क, ३. पउरमेत्य - क, ४; आगंतुण उविट्ठा पणामपुव्वयं इत्यधिक; पाठः क-पुस्तके। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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