Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ [ समराइच्च कहा ४६० अणीय कम्मपरिणामस्स भवियव्वयाए निओएण महाविभूईए परिणीया य णेणं । अतिथ पीई धरणस्स लच्छीए, न उण तीए धरणम्मि । चितेइ एसा - अलं मे जीवलोएण, जत्थ धरणो पइदिणं दीसइ ति । एवं च विडम्बणापायं विसयसुहमणुहवंताणं अइवकंतो कोइ कालो । अन्नयाय पयत्ते मगणमहूसवे कीलानिमित्तं पयट्टो रहवरेण धरणो मलयसुंदरं उज्जाणं । पत्तो नयरिवारदेसं । एत्थंतरम्मि तओ चेव उज्जाणाओ कीलिऊणागओ रहवरेण नयरिदुवारदेसभायं पंचनंदिसेट्ठितो देवनंदित्ति | मिलिया रहवरा दुवारदेसभाए । वित्थिष्ण याए रहवराणं न दोह पि निग्गमणपवेसभूमी । भणियं च देवनंदिणा - भो भो धरण, ओसारेहि ताव रहवरं, ज. व मे पविसइ रहो ति । धरणेण भणियं - अइगओ मे रहो, न तीरए वालेउं । ता तुमं चेव ओसारेहि, जाव मे नीसरइति । देवनंदिणा भणियं - भो भो धरण, अह केण उण अहं भवओ ऊणओ, जेण रहवरं ओसारेमि । धरणेण भणियं - भो भो देवनंदि, तुल्लमेवेयं । एवं च वित्थवका दुवे वि सेट्ठित्ता । रुद्धो निगमपवेसमग्गो नायरयाणं । पवित्थिष्णो जणवाओ । विन्नाओ एस वृत्तंतो नीयतया कर्मपरिणामस्य भवितव्यताया नियोगेन महाविभूत्या परिणीता च तेन । अस्ति प्रीतिर्धरणस्य लक्ष्म्यां न पुनस्तस्या धरणे । चिन्तयत्येषा - अलं मे जीवलोकेन, यत्र धरण: प्रतिदिनं दृश्यते इति । एवं च विडम्बनाप्रायं विषयसुखमनुभवतोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः । 1 अन्यदा च प्रवृत्ते मदनमहोत्सवे क्रीडानिमित्तं प्रवृत्तो रथवरेण धरणो मलयसुन्दरमुद्यानम् । प्राप्तो नगरीद्वारदेशम् । अत्रान्तरे तत एवोद्यानात् क्रीडित्वा गतो रथवरेण नगरीद्वारदेशभागं पञ्चनन्दिश्रेष्ठपुत्र देवनन्दीति । मिलितौ रथवरौ द्वारदेशभागे । विस्तीर्णतया रथवरयोर्न द्वयोरपि निर्गमनप्रवेशभूमिः । भणितं च देवनन्दिना - भो भो धरण ! अपसारय तावद् रथवरम्, यावन्मे प्रविशति रथ इति । धरणेन भणितम् - अतिगतो मे रथः, न शक्यते वालयितुम् । ततस्त्वमेवापसारय, यावन्मे निःसरतीति । देवनन्दिना भणितम् - भो भो धरण ! अथ केन पुनरहं भवत ऊनः, येन रथवरमपसारयामि । धरणेन भणितम् -- भो भो देवनन्दिन् ! तुल्यमेवैतत् । एवं च विरोधितौ द्वावपि श्रेष्ठपुत्रौ । रुद्धो निर्गमप्रवेशमार्गे नागरिकानाम् । प्रविस्तीर्णो जनवादः । विज्ञात एष वृत्तान्तो परिणाम अचिन्तनीय होने से दैवयोग से बड़े ठाठ-बाट से उसके द्वारा (धरण के द्वारा ) विवाही गयी । धरण की लक्ष्मी में प्रीति थी, किन्तु लक्ष्मी की धरण के प्रति प्रीति नहीं थी । यह सोचा करती थी - 'मेरे लिए संसार व्यर्थ है जो कि धरण ( मुझे ) प्रतिदिन दिखाई देता है' - इस प्रकार छल से विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ काल व्यतीत हो गया । एक बार मदनमहोत्सव आने पर क्रीड़ा के निमित्त धरण श्रेष्ठ रथ से मलयसुन्दर उद्यान में गया। नगर के द्वार पर पहुँचा । इसी समय उद्यान से कीड़ा करके पञ्चनन्दी सेठ का पुत्र देवनन्दी नगर के द्वार पर श्रेष्ठ रथ पर सवार होकर आया । नगर के द्वार पर दोनों रथ मिल गये । दोनों रथों की विशालता के कारण दोनों को ( एक साथ) निकलने का स्थान न था । देवनन्दी ने कहा - "हे हे धरण ! रथ को पीछे लौटाओ ताकि मेरा रथ प्रवेश करे ।" धरण ने कहा - " मेरा रथ आगे आ गया है, अतः पीछे नहीं हटाया जा सकता अतः आप ही पीछे हटाइए, ताकि मेरा रथ निकल जाय ।" देवनन्दी ने कहा - "हे हे धरण ! मैं आपसे किस बात में कम हूँ जो कि रथ को हटाऊँ ?" धरण ने कहा - "हे हे देवनन्दी ! यह बात तो दोनों के लिए समान है ।" इस प्रकार दोनों श्रेष्ठिपुत्र झगड़ पड़े। नागरिकों के आने-जाने का मार्ग रुक गया। अफवाह सब जगह फैल गयी। इस वृत्तान्त को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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