Book Title: Samraicch Kaha Part 2
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ ४५८ [ समराइच्चकहा तस्स अईव बहुमओ सयलनयरिसे टिचुडामणीभूओ बंधुदत्तो नाम सेट्टि त्ति । सो य परम्मुहो परकलत्ते न अब्मत्यणाए, अलुद्धो परविभवे न धम्मोवज्जणे, असंतुट्ठो परोवयारे न धणागमे, अहिगओ पीईए न मच्छरेणं, दरिहो दोसेहि न विहवेणं । तेण सा नयरी मलयवणं पिव पारिजाएण वसंतो विय कुसुमुगामेण पाउसिरी विय मेहावलीए सरयकालो विय चंदमंडलेणं अहियं विभूसिय त्ति । तस्स कमलायरस्स विय विलुप्पइ कोसो मित्तमंडलेण, कप्पतस्वरस्स विय खंधे पायं काऊण गहियाई फलाई अथिनिवहेण । तस्स समाणकुलरूपविहवसहावा हारप्पहा नाम भारिया । स इमीए सह धम्मत्थअभग्गपसरं विसयसुहमणुह विसु त्ति ॥ इओ य सो आणयकप्पवासी देवो तम्मि देवलोए अहाउयं पालिऊण चुओ समाणो समुप्पन्नो हारप्पहाए कुच्छिसि । दिट्ठा य णाए तोए चेव रयणी ए चरिमजामम्मि सुमिणए दिव्वपउमासणोवविट्ठा धवल दुगुल्लनिवसणा विविहर यणचियरसणाकलावा तस्यातीव बहुमत: सकलनगरीश्रेष्ठिचूडामणीभूतो बन्धुदत्तो नाम श्रेष्ठीति । स च पराङ्मुख: परकलो नाभ्यर्थनायाम, अलुब्धः परविभवे न धर्मोपार्जने, असन्तुष्टः परोपकारे न धनागमे, अधिगतः प्रीत्या न मत्सरेण, दरिद्रो दोषैर्न विभवेन । तेन सा नगरी मलयवनमिव पारिजातेन वसन्त इव कुसुमोद्गमेन प्रावृटश्रीरिव मेघावल्या शरत्काल इव चन्द्रमण्डलेनाधिकं विभूषितेति । तस्य कमलाकरस्येव विलुप्यते कोशो मित्रमण्डलेन, कल्पतरुवरस्येव स्कन्धे पादं कृत्वा गृहीतानि फलान्यथिनिवहेन । तस्य समानकुल-रूप-विभव-स्वभावा हारप्रभा नाम भार्या । सोऽनया सह धर्मार्थाभग्नप्रसरं विषयसुखमन्वभवत् । इतश्च स आनतकल्पवासी देवो तस्मिन् देवलोके यथायुष्कं पालयित्वा च्युतः सन् समुत्पन्नो हारप्रभायाः कुक्षौ। दृष्टा चानया तस्यामेव रजन्यां चरमयामे स्वप्ने दिव्यपद्मासनोपविष्टा धवलदुकूलनिवसना विविधरत्नखचितरसनाकलापा सुकुमारमृदुस्पर्शणोत्त शत्रुओं के लिए काल के तुल्य कालमेघ नामक राजा था। उसके (यहाँ) अत्यन्त लोकप्रिय, समस्त नगरियों के सेठों में चूडामणि बन्धुदत्त नामक सेठ था । वह परस्त्रियों से विमुख रहता था, किन्तु याचकों की याचना से विमुख नहीं रहता था। दूसरे की सम्पत्ति का लोभी नहीं था, किन्तु धर्मोपार्जन का लोभी न हो, ऐसी बात नहीं थी। परोपकार करते हुए वह सन्तुष्ट नहीं होता था, अर्थात् उसकी परोपकार करने की इच्छा बढ़ती ही रहती थी। किन्तु धन के आगमन के प्रति वह असन्तुष्ट हो, ऐसा नहीं था। वह प्रीति से युक्त था, मत्सर से युक्त नहीं था। दोषों से वह दरिद्र था अर्थात् उसमें दोष नहीं थे, किन्तु वैभव से दरिद्र नहीं था। इन कारणों से उस सेठ से वह नगरी उसी तरह अधिकाधिक रूप से विभूषित हुई जिस प्रकार पारिजात से मलयवन, फूलों के उद्गम से वसन्तमास, मेघों की पंक्ति से वर्षाकाल और चन्द्रमण्डल से शरत्काल अत्यधिक विभूषित होता है। कमलों के समूह के समान उसका कोश मित्रमण्डल द्वारा ही कृश किया जाता था। कल्पवक्ष के तने पर पैर रखकर जिस प्रकार चाहने वाले लोग फलों को ग्रहण कर लेते हैं उसी प्रकार याचक लोगों ने उससे फल ग्रहण किये थे। उसके समान कुल, समान रूप, समान वैभव तथा समान स्वभाव दाली हारप्रभा नामक स्त्री थी। वह इसके साथ धर्म और अर्थ का निरन्तर सेवन करता हुआ विषयसुख का अनुभव करता था। इधर वह आनत कल्पवासी देव उस स्वर्ग की आयु का उपभोग करने के अनन्तर च्युत होकर हारप्रभा के गर्भ में आया। हारप्रभा ने उसी रात्रि के अन्तिमप्रहर में स्वप्न में दिव्य कमलासन पर बैठी हुई, सफेद वस्त्र पहने हुई, अनेक प्रकार के रत्नों से युक्त करधनी को धारण किये हुए, सुकुमार और मृदु स्पर्शवाले उत्तरीय से स्तनों को आच्छादित किये हुए, मोतियों १. मणुविसु-क, २. अहाउयमणु-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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