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जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व
Vol. XXV, 2002
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निर्जरा के साधन
( सविपाक निर्जरा के लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। वह काल द्रव्य के अनुसार स्वतः ही घटित होती है, किन्तु अविपाक निर्जरा के लिए तप आवश्यक होता है । मात्र इच्छा करने से कर्मों का नाश नहीं होता, उसके नाश के लिए तप आदि का विधान किया जाता है ।
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आचार्य उमास्वामी का मानना है कि तप से निर्जरा होती है । १८ कुछ व्याख्याकारों ने तप से संवर भी माना है, किन्तु निर्जरा के लिए तप ही एक मात्र साधन है । तप से निर्जरा और निर्जरा से मुक्ति प्राप्त होती है। सम्यक् दर्शन और आत्मज्ञान के बिना किया गया तप बाल तप के समान है । प्रवचनसार के अनुसार" स्वरूप में विश्रान्त, तरंगों से रहित जो चैतन्य का व्रतपन है, वही तप कहलाता १९
तप के भेद
तप के भेद को निर्जरा का भेद भी कहते हैं । आत्मा के उपर जो कर्म का आवरण है उसे तप आदि द्वारा क्षय किया जाता है । कर्मक्षय का हेतु होने से तप को निर्जरा कहा गया है । २०
स्थानांग सूत्र में एगा णिज्जरा - २१ एक निर्जरा है, ऐसा माना गया है किन्तु कुछ अन्य स्थानों पर निर्जरा निमित्त भेद से बारह प्रकार की बतायी गयी है । जैसे अग्नि एक रूप होने पर भी निमित्त के भेद से कष्टानि, पणन अनेक प्रकार की होती है, वैसे ही कर्म परिपाटन रूप निर्जरा वास्तव में एक ही है पर तुओं की अपेक्षा से बारह प्रकार की कही जाती है । २२
तप के कनकावलि आदि अनेक भेद हैं। इस दृष्टि से निर्जरा के और भी अनेक भेद हो सकते हैं । २३
आचार्य अभयदेवने स्थानांग वृत्ति में कहा है कि - " अष्टविध कर्मों की अपेक्षा निर्जरा आठ प्रकार की है ।" द्वादशविध तपों से उत्पन्न होने के कारण निर्जरा बारह प्रकार की है । अकाम क्षुधा, पिपासा शीत, आतप, दंशमशक और मल-सहन, ब्रह्मचर्य धारण आदि अनेकविध कारणजनित होने से निर्जरा अनेक प्रकार की है । २४
यहाँ पर कुल बारह प्रकार के तपों का वर्णन किया गया है । ये बारहों तप दो प्रकार के तपों में विभक्त • बाह्य तप और अभ्यन्तर तप । इन दोनों तपों का वर्णन क्रमशः निम्न प्रकार से है - प्रस्तुत
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बाह्य तप
जैन दर्शन में छः बाह्य क्रियाएँ या बाह्य तपों का वर्णन किया गया है, जो निम्नलिखित हैं१. अनशन
१३. वृत्ति - संक्षेप ( भिक्षाचरी)
५. विविक्त शय्यासन (प्रति संलीनता) ६. काय क्लेश २५
२. अवमोदार्य (अनोदरी) ४. रस - परित्याग
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