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152 डा० मुकुल राज महेता
SAMBODHI ३. धर्म ध्यान- वीतराग तथा सर्वज्ञ पुरुष की आज्ञा की परीक्षा तथा परिचय प्राप्त करने में मनोयोग देना “धर्म ध्यान" कहा जाता है। दोषों के स्वरूप तथा उससे बचने के उपायों का विचार करने में मनोयोग देना । अनुभवगम्य विपाकों का सम्यक् तथा ज्ञान रखने में मनोयोग देना । लोक के स्वरूप का विचार करने में मनोयोग देना । यह ध्यान भी चार प्रकार का माना गया है।
१. आज्ञाविचय धर्मध्यान २. अपायविचय धर्मध्यान ३. विपाकविचय धर्मध्यान
४. संस्थानविचय धर्मध्यान ।७६ ४. शुक्ल ध्यान - साधक को सभी प्रकार के कर्मों से मुक्ति दिलाने में यह ध्यान लाभदायक है अर्थात् सम्पूर्ण जीवन में किये गये पाप दुष्कर्म से छुटकारा मिलता है । इस ध्यान का प्रमुख लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष की प्राप्ति में यह विशेष उपयोगी होने के कारण उपशान्त मोह तथा क्षीणमोह दो प्रकार का माना गया है।
व्युत्सर्ग व्युत्सर्ग शब्द दो शब्दों के योग से बना है - वि+उत्सर्ग । 'वि' का अर्थ है विशिष्ट और 'उत्सर्ग' का अर्थ है—त्याग । विशिष्ट त्याग या त्याग करने की विशिष्ट विधि को 'व्युत्सर्ग' कहते हैं।
आचार्य अकलंक ने व्युत्सर्ग को इस प्रकार परिभाषित किया है कि – “निःसंगता-अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग।" व्युत्सर्ग इसी आधार पर टिका हुआ है। धर्म के लिए, साधना के लिए, अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि व्युत्सर्ग है । तत्त्वार्थ सूत्र में व्युत्सर्ग के दो प्रकार किये गये हैं
१. बाह्योपाधिव्युत्सर्ग
२. आभ्यन्तरोपाधिव्युत्सर्ग।७८ १. बाह्योपाधिव्युत्सर्ग – धन-धान्य आदि बाह्य वस्तुओं से ममताभाव समाप्त कर लेना ही "बाह्योपाधिव्युत्सर्ग" कहलाता है।
२. आभ्यान्तरोपाधिव्युत्सर्ग - शरीर से ममताभाव समाप्त हो जाना एवं काषायिक विकारों में तन्मयता का त्याग करना ही “आभ्यन्तरोपाधिव्युत्सर्ग" कहलाता है।
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