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150 डा० मुकुल राज महेता
SAMBODHI . ९. साधु - प्रव्रज्याधारी उपासक अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेवाले को “साधु"
___ कहते हैं। १०. समनोज्ञ – ज्ञानादि गुणों में समान व्यत्ति को “समनोज्ञ" कहते हैं ।५७ .
स्वाध्याय शास्त्रों को मर्यादापूर्वक पढ़ना, विधिसहित अध्ययन करना “स्वाध्याय" है ।५८ दूसरा अर्थ हैं - अपना अपने ही भीतर अध्ययन अर्थात् आत्मचिन्तन मनन, “स्वाध्याय' है।५९ इसमें साधक स्वयं की गलती को ढूँढ़ करके उसके निवारण के लिए आत्मचिन्तन करना।
जिस प्रकार शरीर की वृद्धि के लिए भोजन व व्यायाम की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए आत्म-मन्थन-चिन्तन व अध्ययन की आवश्यकता होती है।
स्वाध्याय से सभी प्रकार के दुःखों से मुक्ति मिलती है।६° इससे मन में एकत्रित, संचित दूषित कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं।६१ आचार्य संघदासगणी ने कहा है - स्वाध्याय एक अभूतपूर्व तप है। इसके समान तप न अतीत में कभी हुआ है, न वर्तमान में है और न भविष्य में कभी होगा ।६२
एक वैदिक ऋषि ने स्पष्ट किया है – 'तपो हि स्वाध्यायः ।"६३ अर्थात् स्वाध्याय ही तप है। स्वाध्याय में कभी भी प्रमाद न करो ।६४ स्वाध्याय करने से मन निर्मल, स्वच्छ व पारदर्शी हो जाता है । आचार्य पतंजलि ने तो यहाँ तक कहा है कि स्वाध्याय करने से अपने इष्ट देवता का साक्षात्कार होने लगता है।६५ ____ ज्ञान प्राप्त करने से उसे विशद एवं परिपक्व बनाने तथा उसके प्रचार का प्रयत्न करना, ये सभी स्वाध्याय के अन्तर्गत आते हैं। ये स्वाध्याय पाँच प्रकार के होते हैं।६६ १. वाचना
४. आम्नाय २. पृच्छना
५. धर्मोपदेश ३. अनुत्प्रेक्षा १. वाचना - किसी शब्द का यदि प्रथम पाठ किया जाय तो वही “वाचना" है। २. पृच्छना - सभी प्रकार की शंका को दूर करने को "पृच्छना" कहते हैं। ३. अनुत्प्रेक्षा – किसी भी शब्द, पाठ तथा अर्थ का मनन करना “अनुत्प्रेक्षा" है। ४. आम्नाय - पढ़े गये पाठों का शुद्ध उच्चारण करना “आम्नाय" कहलाता है।
५. धर्मोपदेश - ज्ञात वस्तुओं के आन्तरिक व बाह्य सभी प्रकार के रहस्य को समझना “धर्मोपदेश" कहलाता है।
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