Book Title: Samanya Pandulipi Vigyan
Author(s): Mahavirprasad Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 165
________________ ही निर्भर रहता है। इसमें वह इतना भर करता है कि जो सामान्य दोष दिखाई देते हैं, उन्हें वह दूर कर देता है। जैसे हमने 'भीमविलास' का सम्पादन किया। दूसरे प्रकार की तुलनात्मक प्रणाली में सम्पादक के पास दो प्रतियाँ होती हैं। इनमें तुलना करने पर जो प्रति उसे अधिक अच्छी लगती है, उसी को मानकर सम्पादन कर देता है। ऐसे सम्पादित ग्रंथों में वह पाठान्तर देना भी उचित नहीं समझता। कहींकहीं जहाँ उसे दोनों पाठ अच्छे लग रहे हों तब वह फुटनोट में दूसरा पाठ भी दे सकता है। इसी प्रणाली के अन्तर्गत पाठालोचक एक ही ग्रंथ की एकाधिक पाण्डुलिपियाँ प्राप्त होने पर भी इसी प्रणाली का निर्वहन करता है। वह स्वेच्छया जिस पाठ को ठीक समझता है उसे ही मूल मान कर सम्पादन कर देता है। उसकी रुचिप्राधान्य के कारण ही वह तदनुकूल रचनाकार के वैशिष्ट्य को भी अपनी भूमिका में प्रकट करने का प्रयास करता है। तीसरी वैज्ञानिक प्रणाली है। इसे वैज्ञानिक चरण भी कह सकते हैं । इस चरण की प्रणाली में कई हस्तलेखों की तुलना की जाती है। अब तुलनात्मक आधार पर प्रायः प्रत्येक प्रति में मिलने वाली त्रुटियों में साम्य वैषम्य देखा जाता है। इसके परिणाम के आधार पर इन समस्त हस्तलेखों का एक वंशवृक्ष तैयार किया जाता है और कृति का आदर्श पाठ या मूल पाठ निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार इस प्रणाली के बाद पाठालोचन को एक अलग विज्ञान मान कर उसे भाषाविज्ञान के समकक्ष विज्ञान ही माना जाने लगा है। 7. पाठालोचन-प्रक्रिया पाठालोचन या पाठानुसंधान की प्रक्रिया में निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए - (क) पाण्डुलिपि या ग्रंथ-संग्रह : किसी पुस्तक का पाठालोचन करते समय, सर्वप्रथम उस पुस्तक-संबंधी प्रकाशित एवं अप्रकाशित (हस्तलिखित) सामग्री का संकलन कर लेना चाहिए। जहाँ-जहाँ भी उक्त ग्रंथ के प्राप्त होने 1. शंकर राव कृत भीमविलास : डॉ. महावीर प्रसाद शर्मा, 1983, लोकभाषा प्रकाशन, कोटपूतली (जयपुर)। 2. पाण्डुलिपिविज्ञान : डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 225-26 . 148 सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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