Book Title: Samanya Pandulipi Vigyan
Author(s): Mahavirprasad Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 204
________________ इसी प्रकार शिलालेखों एवं अभिलेखों में भी विशिष्टार्थी शब्दों का प्रयोग मिलता है। इस संबंध में डॉ. डी.सी. सरकार के 'इण्डियन एयोग्राफी' ग्रंथ के आठवें अध्ययन को देखा जा सकता है। अभिप्राय कहने का यह है कि विशिष्टार्थी शब्दों के पूर्वापर प्रसंग को भी ध्यान में रखकर अर्थ किया जाना चाहिए। 9. संख्यावाचक शब्द : पाण्डुलिपि में आये अनेक शब्द संख्यावाची होते हैं। उनसे जिस संख्या का बोध होता है, वही अर्थ ग्रहण करना होता है। ऐसे शब्दों के अभिधार्थ से काम नहीं चलता। इस प्रकार के शब्दों की सूचना पिछले पृष्ठों में अन्यत्र दी जा चुकी है। जैसे - रजनीस = चन्द्रमा - 1, वेद - 4, रस - 6 संख्यावाची शब्द ही हैं। ___10. वर्तनी-च्युत शब्द : कभी-कभी पाण्डुलिपि में ऐसे शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता है जब लेखक या लिपिकर्ता द्वारा वर्तनी की भूल हो गई हो। इस वर्तनी-च्युति के कारण 'स' का 'श' उ का ऊ आदि रूप लिखे मिलते हैं। जैसे - सलिल-शलिल, तरु-तरू आदि। वर्तनी-च्युति के कारण मात्राविकृति एवं शब्द-विकृति स्वाभाविक है। 11. स्थापन्न शब्द (भ्रमात् अथवा अन्यथा) : जब पाण्डुलिपि में प्रयुक्त कोई शब्द पाठक या अध्येता की समझ से बाहर होता है तब वह अपनी सुविधार्थ, उस शब्द के स्थान पर नया शब्द रखकर स्वैच्छित अर्थ निकाल लेता है। ऐसे शब्द को ही स्थानापन्न, भ्रमात् या अन्यथा शब्द कहा जाता है। इस प्रकार के शब्दों के लिए पाण्डुलिपि वैज्ञानिक को ध्यान रखना आवश्यक है। ___ 12. अपरिचित शब्द : प्राय: ऐसा भी होता है कि जब अतिप्राचीन पाण्डुलिपि में व्यवहत शब्द पाण्डुलिपि वैज्ञानिक को अपरिचित लगता हो। यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि हजारों वर्ष पूर्व लिपिकृत पाण्डुलिपि में व्यवहत शब्द अब प्रचलित नहीं रहा हो। केवल इसी कारण से एक पाण्डुलिपिवेत्ता उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। उसे चाहिए कि उस अपरिचित शब्द का तत्कालीन स्रोतों से अनुसंधान कर सही शब्द एवं अर्थ को प्रस्तुत करें। अपरिचित शब्दों में कुछ शब्द विशिष्टार्थ शब्द या पारिभाषिक शब्द भी हो सकते हैं। हमें इस ओर भी ध्यान देना अपेक्षित है। इसके साथ ही अपरिचित शब्द रूपों में ऐसे शब्द भी आ सकते हैं, जिनके शब्द और अर्थ : एक समस्या 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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