Book Title: Samanya Pandulipi Vigyan
Author(s): Mahavirprasad Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 200
________________ 2. विकृत-शब्द : पाण्डुलिपि में विकृत-शब्दों की भी एक समस्या रहती है जिसके कारण अभीष्ट अर्थ तक पहुँचना कठिन रहता है। यह तो प्रायः निश्चित ही है कि प्रतिलिपिकार मूलपाठ की यथावत् प्रतिलिपि नहीं कर सकता। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। इसलिए प्रतिलिपि में कुछ पाठ-संबंधी विकृतियाँ आ जाना स्वाभाविक है। इन विकृतियों की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है : उन समस्त पाठों को विकृत पाठ की संज्ञा दी जायेगी जिनके मूल लेखक द्वारा लिखे होने की किसी प्रकार की संभावना नहीं की जा सकती और जो लेखक की भाषा, शैली और विचारधारा से पूर्णतया विपरीत पड़ते हैं। इस प्रकार विकृत-पाठ में विकृत-शब्दों का बड़ा भारी योगदान रहता है। ये विकृत-शब्द निम्न प्रकार हो सकते हैं - (1) आकार विकृति : शब्द की मात्रा, अक्षर आदि विकृत होने के कारण शब्द में आकार विकृति हुआ करती है। इस प्रकार विकृत शब्द छ: प्रकार के होते हैं - (क) मात्रा-विकृत : लघु मात्रा की जगह दीर्घ या दीर्घ मात्रा की जगह लघु मात्रा लिखकर यह विकृति लाई जाती है। जैसे - रात्रि > रात्री । कभी-कभी भ्रमवश किसी अन्य मात्रा की जगह अन्य मात्रा लिख दी जाती है, जैसे धीरै > धोरै (ई - ओ)। 'मात्रा विकृति' के रूप कई कारणों से बनते हैं; जैसे - मात्रा लगाना ही भूल जायें, दो मात्राओं में अभेद स्थापित हो जाये, स्मृति-भ्रम हो, या अनवधानता के कारण, जैसे - 'विसंतुलयं' के स्थान पर 'विसुंठल्यं' लिखना। (ख) अक्षर-विकृत : अक्षर-विकृत शब्द वे शब्द होते हैं जो ऐसे लिखे गये हों कि जिन्हें पाठक कुछ का कुछ पढ़ लेता हो। इस प्रकार के कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं - क> फ त > ट ष > प, ब थ > छ, ब ग > म द ) व 1. परिषद् पत्रिका, वर्ष 3, अंक 4, पृ. 48, पटना, डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा का लेख – 'पाठ विकतियाँ और पाठ-संबंधी निर्धारण में उनका महत्व।' शब्द और अर्थ : एक समस्या 183 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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