Book Title: Samanya Pandulipi Vigyan
Author(s): Mahavirprasad Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

Previous | Next

Page 184
________________ संकेत नहीं दिया होता है। ऐसी परिस्थिति में काल-निर्णय' हेतु निम्नलिखित साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है : (क) बाह्य साक्ष्य (ख) अन्त:साक्ष्य। 1. बाह्य साक्ष्य में निम्नलिखित बातों का आश्रय लेना पड़ता है - (क) बाह्य उल्लेख - अन्य सम-सामयिक रचनाकारों द्वारा उल्लेख (ख) रचनाकार विषयक लोक-अनुश्रुतियाँ (ग) ऐतिहासिक घटना-क्रम (घ) सामाजिक परिस्थितियाँ (ङ) सांस्कृतिक परिवेश . 2. अन्तःसाक्ष्य (क) स्थूल-पक्ष : (1) लिप्यासन-कागजादि, (2) स्याही, (3) लिपि, (4) लेखन-शैली, (5) अलंकार, (6) अन्य। (ख) सूक्ष्म-पक्ष : (1) विषयवस्तु से, (2) रचना में आये उल्लेखों से, (क) ऐतिहासिक, (ख) ग्रंथकारों/रचनाकारों के उल्लेख, (ग) समयवर्णन, (घ) सांस्कृतिक विवरण, (ङ) सामाजिक परिवेश। (ग) भाषा-वैशिष्ट्य से : (1) व्याकरण संबंधी, (2) शब्द संबंधी, (3) मुहावरों संबंधी। 3. वैज्ञानिक प्रविधि : (क) प्राप्ति स्थान का भूमि-परीक्षण, (ख) वृक्ष परीक्षण, (ग) कोयले से आदि। (क) बाह्य साक्ष्य : जिस ग्रंथ का रचनाकाल संबंधी संकेत-सूत्र रचना में नहीं प्राप्त होता है तब हमें बाह्य साक्ष्य का सहारा लेना पड़ता। ऐसी परिस्थिति में संदर्भ-ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए। क्योंकि कई बार इन संदर्भ-ग्रंथों में आलोच्य रचनाकार एवं उनके ग्रंथों के विवरण के सूत्र भी मिल जाते हैं। जैसे - नाभादास कृत भक्तमाल और उसकी टीकाओं में मध्यकालीन संत-भक्तों का उल्लेख किया गया है। हो सकता है आलोच्य कवि या ग्रंथकार के संबंध में भी वहाँ कोई सूत्र मिल जाये। इससे उस कवि के काल-निर्णय में काफी सहायता मिल सकती है। क्योंकि सामान्यत: जिन रचनाकारों का भक्तमाल में उल्लेख है वे 'भक्तमाल' के समसामयिक या पूर्व के ही हो सकते हैं। इस प्रकार काल-निर्णय 167 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222