Book Title: Samanya Pandulipi Vigyan
Author(s): Mahavirprasad Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 183
________________ इस प्रकार की भूलें विभिन्न क्षेत्रों के पंचांगों में विवाद का विषय बन जाया करती हैं । इस कारण किसी भी अभिलेख या लेख का काल निर्धारण करना अत्यधिक जटिल जाता है। इस प्रकार की जटिलता के समय डॉ. एल. डी. स्वामीकन्नु पिल्ले की 'इण्डियन एफिमेरीज' अत्यधिक सहायक सिद्ध हो सकती है। शब्द में काल-संख्या देना -- भारत में शब्दों में अंकों को लिखने की प्रणाली से भी काल-निर्णय में अड़चनें उपस्थित हो जाती हैं। इस संदर्भ में डॉ. सत्येन्द्र कहते हैं कि “यह कठिनाई तब पैदा होती है जब जो शब्द अंक के लिए दिया गया है, उससे दो-दो संख्याएँ प्राप्त होती हैं, जैसे - सागर या समुद्र से दो संख्याएँ मिलती हैं, 4 भी और 7 भी। एक तो कठिनाई यही है कि सागर शब्द से 4 का अंक लिया जाए या 7 का। पर कभी कवि दोनों को ग्रहण करता है, जैसे - 'अष्टसागर पयोनिधि चन्द्र' - यह जगदुर्लभ की कृति उद्धव चमत्कार का रचनाकाल है। इसमें सागर भी है और इसी का पर्याय 'पयोनिधि' है। क्या दोनों स्थानों के अंक 4-4 समझे जायें या 7-7 माने जायें या किसी एक का 4 और दूसरे का 7, इस प्रकार इतने संवत् बन सकते हैं : 1448, 1778, 1748, 1478।"" वस्तुतः ऐसे दो-तीन अंक बतलाने वाले शब्दों से व्यक्त संवत् को ठीक-ठीक समझने में अत्यधिक कठिनाई होती है। हाँ, यदि ये संवत् अंकों में भी साथ-साथ दिये गये होते तो कठिनाई नहीं होती। यहाँ तक कि यदि अंकों में संवत् नहीं होता तो उसे तिथि, वार, पक्ष या मास के साथ पंचांगों में या 'इण्डियन ऐफीमेरीज' से निकाला जा सकता था। काल निर्णय में 'तिथि' विषयक समस्या तब आती है जब तिथि का नाम उस तिथि के स्वामी के नाम से किया जाता है। 'वंश भास्कर' के कवि सूर्यमल मिश्रण ने ऐसी ही पद्धति अपनाई है। जैसे - 'विषहर तिथ' (पंचमी, नाग पंचमी) 'मनसिज तिथ' (त्रयोदशी, कामदेव की तिथि), भालचंद अइ (चतुर्दशी, शिव की तिथि) आदि। इस प्रकार तिथि का उल्लेख उस तिथि के स्वामी या देवता के नाम से भी किया जाता था। इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। 6. काल-संकेत रहित ग्रंथ के काल-निर्णय की पद्धति पाण्डुलिपिविज्ञान के अनुसंधानकर्ता को प्रायः ऐसी अनेक रचनाएँ खोजकार्य के दौरान प्राप्त होती हैं, जिन पर किसी भी प्रकार का 'रचनाकाल' का 1. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 273 - 166 सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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