Book Title: Samadhi Tantra
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 15
________________ मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रु च प्रियः। मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रिय: ।।२६।। वे व्यक्ति जो मेरे आत्म-स्वरूप को नहीं देखते/ समझते मेरे शत्रु या मित्र नहीं हैं और वे जो उसे देखते/समझते हैं वे भी मेरे शत्रु या मित्र नहीं हैं। त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थित: । भावयेत्परमात्मानं सर्वसङ्कल्पवर्जितम्।।२७॥ बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा में स्थित रहते हुए तमाम संकल्प-विकल्पों से रहित होकर परम आत्मा का ध्यान करना चाहिए। सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः । तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ।।२८॥ उस परमात्मा में भावना करते रहने से वह मैं हूँ' इस प्रकार का संस्कार प्राप्त होता है। यह भावना बार-बार की जाय तो वह संस्कार दृढ़ होता है और स्वयं में परमात्मा की अवस्थिति प्राप्त होती है। मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम्। यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मन: ॥२६ ।। अज्ञानी व्यक्ति देह, पत्नी, पुत्र आदि जिनमें भी विश्वास करता है वस्तुत: वे ही आत्मा के लिए भय के स्रोत हैं और जिस परमात्मा से वह भयभीत रहता है वही आत्मा को अभय देने वाली एकमात्र शक्ति है। सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना। यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मन: ।।३० ॥ सम्पूर्ण इन्द्रियों को संयमित करने पर स्थिर हुए अन्त:करण को क्षण मात्र के लिए जो आभासित होता है वही परमात्मा का तत्त्व है। 14

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