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देहान्तरगते बीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना।
बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ।।७४ ।। देह को ही आत्मा समझना पुन: देह धारण करने का मूल कारण है। इसके विपरीत आत्मा को ही आत्मा समझना पुन: देह धारण करने से छुटकारा पाने का मूल कारण है।
नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च।
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत: ।।७५ ।। देह को ही आत्मा समझने के कारण बार-बार जन्म लेने के लिए व्यक्ति खुद ही ज़िम्मेदार है और आत्मा को ही आत्मा समझने के कारण खुद को इससे मुक्ति दिलाने के लिए भी वही ज़िम्मेदार है। इसलिए व्यक्ति खुद अपना गुरु है। दूसरा कोई उसका गुरु नहीं है।
दृढात्मबुद्धिदेहादावुत्पश्यन्नाशमात्मनः ।
मित्रादिभिर्वियोगं च बिभेति मरणाभृशम् ॥७६॥ देह आदि को ही दृढ़तापूर्वक आत्मा समझने के कारण बहिरात्मा व्यक्ति अपनी मौत और मित्रादि के वियोग से बहुत डरता है।
आत्मन्येवात्मधीरन्यां शरीरगतिमात्मनः ।
मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रान्तरग्रहम् ।।७७॥ आत्मा को ही आत्मा समझनेवाला अन्तरात्मा व्यक्ति देह की गति यानी उसकी बाल्य अवस्था, युवा अवस्था और मृत्यु आदि परिणतियों को अपनी आत्मा से भिन्न मानता है। इसलिए वह मृत्यु को एक वस्त्र का त्याग और दूसरे वस्त्र का ग्रहण समझकर निर्भय बना रहता है।
व्यवहारे सुषुप्तो य: स जागांत्मगोचरे।
जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ।।७८ ।। लोक व्यवहार के मामले में सोया हुआ अयत्नशील व्यक्ति आत्मा के मामले में जागृत और तत्पर रहता है। इसके विपरीत जो लोक व्यवहार के मामले में जागृत यानी सावधान रहता है वह आत्मा के मामले में सोया हुआ अयत्नशील रहता है।
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