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जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः ।
sपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः ॥ ८६ ॥
कुछ लोगों का शास्त्रीय आग्रह होता है कि जाति, वेश के विकल्प से मुक्ति मिलती है अर्थात् अमुक जाति को अमुक वेश धारण करने से मुक्ति मिलेगी। ऐसे व्यक्तियों आत्मा परम पद की प्राप्ति नहीं होती ।
यत्त्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदवाप्तये ।
प्रीतिं तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्र मोहिनः ॥ ६० ॥
शरीर का मोह त्यागने और वीतरागता को पाने के लिए इन्द्रिय भोगों का त्याग किया जाता है। लेकिन मोहग्रस्त व्यक्ति शरीर से प्रेम और वीतरागता से द्वेष रखता है।
अनन्तरज्ञः सन्धत्ते दृष्टिं पङ्गोर्यथाऽन्धके ।
संयोगात् दृष्टिमङ्गेऽपि सन्धत्ते तद्वदात्मनः॥११॥
भेदविज्ञान न जाननेवाला व्यक्ति जैसे संयोग के कारण भ्रमित होकर लँगड़े की दृष्टि को अंधे में आरोपित कर बैठता है वैसे ही वह आत्मा की दृष्टि को शरीर में आरोपित कर लेता है और समझने लगता है कि शरीर ही देख / समझ रहा है।
दृष्टभेदो यथा दृष्टिं परन्धे न योजयेत् ।
तथा न योजयेद्देहे दृष्टात्मा दृष्टिमात्मनः ॥६२॥
भेदविज्ञान को जाननेवाला व्यक्ति जिस प्रकार लँगड़े की दृष्टि को अंधे से नहीं जोड़ता उसी प्रकार आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझनेवाला व्यक्ति आत्मा की दृष्टि को, उसके ज्ञानदर्शन स्वभाव को शरीर के साथ संयुक्त नहीं करता। उन्हें शरीर की विशेषताएं नहीं मानता ।
सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव विभ्रमोऽनात्मदर्शिनाम् ।
विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शिनः ॥ ६३ ॥
जो आत्म-स्वरूप के द्रष्टा नहीं हैं उन बहिरात्मा व्यक्तियों को केवल सोने और उन्मत्त होने की अवस्थाएं ही विभ्रम (भ्रम रूप) मालूम पड़ती हैं। लेकिन आत्म-स्वरूप के द्रष्टा अन्तरात्मा
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