Book Title: Samadhi Tantra
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 26
________________ आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिकं बहिः। तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत्॥७६ ।। आत्मा को अभ्यन्तर में और शरीरादि को बाह्य में देखने के भेदविज्ञान और इस भेदविज्ञान के अभ्यास से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। पूर्वं दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत्। स्वभ्यस्तात्मधिय: पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत् ।।८।। आत्मदर्शन कर चुके योगी व्यक्ति को शुरू में यह संसार पागल जैसा और बाद में आत्मस्वरूप का परिपक्व अभ्यास हो जाने पर काठ तथा पत्थर जैसा प्रतीत होता है। शृण्वन्नप्यन्यत: कामं वदन्नपि कलेवरात्। नात्मानं भावयेद्भिनं यावत्तावन्न मोक्षभाक्॥८१॥ आत्मा के स्वरूप को उपाध्याय आदि गुरुओं से जी भर कर सुनने और अपने मुख से दूसरों को बतलाने पर भी जब तक जीव शरीरादि से आत्मा की भिन्नता को अनुभव नहीं करता तब तक वह मोक्ष का अधिकारी नहीं होता। तथैव भावयेद्देहाव्यावृत्यात्मानमात्मनि । यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ।।८२॥ व्यक्ति को चाहिए कि वह आत्मा को शरीर से भिन्न और पृथक् अनुभव करके आत्मा में ही आत्मा की इतनी भावना करे कि फिर स्वप्न में भी वह शरीर को आत्मा समझने की भूल न कर सके। अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्यय:। अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥८३॥ अव्रतों से पाप का और व्रतों से पुण्य का बन्ध होता है और जहाँ पाप तथा पुण्य दोनों समाप्त हो जाते हैं वहाँ मोक्ष है। इसलिए मोक्ष का इच्छुक व्यक्ति अव्रतों की तरह व्रतों का भी परित्याग कर सकता है। 25

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