Book Title: Samadhi Tantra
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 24
________________ प्रविशद्गलतां व्यूहे देहेऽणूनां समाकृतौ । स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धयः ॥ ६६ ॥ परमाणुओं के समूह शरीर में प्रवेश करते और बाहर निकलते रहते हैं । फिर भी शरीर की आकृति समान बनी रहती है। इस स्थिति से भ्रम में पड़कर अज्ञानी व्यक्ति शरीर कोही आत्मा समझ लेते हैं । गौर: स्थूलः कृशो वाऽहमित्यङ्गेनाविशेषयन् । आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ॥ ७० ॥ मैं गोरा हूँ, मोटा हूँ, पतला हूँ- इस प्रकार शरीर के साथ आत्मा को एकरूप न करते हुए सदैव केवल ज्ञानस्वरूप आत्मा को ही चित्त में धारण करना चाहिए । मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः ॥ ७१ ॥ जिस व्यक्ति के चित्त में आत्मा की अविचल धारणा है उसकी अनिवार्यतः मुक्ति होती है। जिसकी ऐसी धारणा नहीं है उसकी अनिवार्यतः मुक्ति नहीं होती। जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥ ७२ ॥ लोगों के संसर्ग में आने पर वाणी की प्रवृत्ति होती है । वाणी की प्रवृत्ति होने पर मन चंचल होता है । मन के चंचल होने पर मन में विकल्प उठते हैं। इसलिए योगी को चाहिए कि वह ( योगाभ्यास के वक़्त) लौकिक जनों का संसर्ग न करे । ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम् । दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ॥७३ ।। जिन्हें आत्मा की अनुभूति नहीं हुई है उन्हें गांव और जंगल इन दो प्रकार के निवासों के विकल्प हो सकते हैं। इसके विपरीत जिन्हें आत्मा की अनुभूति हो चुकी है उनके लिए तो विशुद्ध और अविचल आत्मा ही एक मात्र निवास है । 23

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