Book Title: Samadhi Tantra
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 22
________________ लो। यद् बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुनः । ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ॥५६ ।। जो मैं समझा सकता हूँ वह मैं नहीं हूँ। वह मेरा आत्मस्वरूप नहीं है और जो आत्मस्वरूप मैं हूँ वह दूसरे जीवों को उपदेशों से ग्राह्य नहीं है। इसलिए दूसरे जीवों को भला मैं क्या समझाऊँ? बहिस्तुष्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे। तुष्यत्यन्त: प्रबुद्धात्मा बहिर्व्यावृत्तकौतुकः ॥६० ।। भीतर की ज्ञान ज्योति मोहाच्छादित होने के कारण बहिरात्मा व्यक्ति बाह्य पदार्थों (शरीरादि) में ही आनन्द मानता है। इसके विपरीत जागृत अन्तरात्मा व्यक्ति बाह्य पदार्थों में कोई रुचि नहीं लेता। वह अपने अन्तरंग में, अपने आत्मस्वरूप में ही आनन्दित रहता है। न जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः। निग्रहानुग्रहधियं तथाप्यत्रैव कुर्वते॥६१॥ शरीरों को सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। वे निग्रह-अनुग्रह को नहीं समझते। फिर भी अज्ञानी बहिरात्मा व्यक्ति उपवास आदि के द्वारा उनका निग्रह करने (दण्ड देने) और वस्त्राभूषण पहनाकर उन पर अनुग्रह करने की बुद्धि रखता है। स्वबुद्ध्या यावद्गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम्। संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृति: ॥६२ ।। जब तक शरीर, वाणी और मन को आत्मा समझा जाता है तभी तक संसार है। जब इनको आत्मा से भिन्न समझने का अभ्यास शुरू होता है तब मुक्ति का द्वार खुलता है। घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा। घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः ।।६३ ।। मोटे कपड़े पहन लेने पर कोई व्यक्ति खुद को मोटा नहीं समझने लगता। उसी प्रकार अन्तरात्मा ज्ञानी व्यक्ति शरीर के ताक़तवर हो जाने को आत्मा की ताक़त नहीं मानता।

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