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शरीरे वाचि चात्मानं सन्धत्ते वाक्शरीरयोः।
भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते ।।५४ ।। वाणी और शरीर में भ्रमित व्यक्ति वाणी और शरीर में आत्मा को तलाशता है। इसके विपरीत वाणी और शरीर के यथार्थ को समझनेवाला व्यक्ति इन तत्त्वों (वाणी और शरीर) को आत्मा से पृथक् समझता है।
न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमङ्करमात्मन:।
तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥५५ ।। इन्द्रिय विषयों में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो आत्मा का भला करने वाला हो। तो भी अज्ञानी व्यक्ति अज्ञान भावना के कारण इन्द्रिय विषयों में ही आसक्त रहता है।
चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मान: कुयोनिषु ।
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति ॥५६॥ मिथ्यात्व (अज्ञान) रूपी अंधकार के कारण अज्ञानी जीव अनादिकाल से हीन पर्यायों में सोए हुए दुःख भोग रहे हैं। यदि कदाचित् कोई जाग भी रहे हैं तो वे अनात्मीय को जैसे पत्नी, पुत्र आदि को अपना और अनात्मभूत को यानी जो आत्मा नहीं है उस शरीर आदि को यह मैं ही हूँ' ऐसा मान रहे हैं।
पश्येन्निरन्तरं देहमात्मनोऽनात्मचेतसा।
अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे व्यवस्थितः ॥५७ ।। अन्तरात्मा व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर अपनी देह को सदैव इस रूप में देखे कि यह मेरी आत्मा नहीं है और दूसरे प्राणियों की देह को भी अनात्म बुद्धि से ही इसी रूप में देखे कि उनकी भी देह उनकी आत्मा नहीं है।
अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा।
मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ॥५८ ।। अन्तरात्मा व्यक्ति सोचता है कि मूर्ख अज्ञानी जन मेरे बिना बताए तो मुझे-मेरे आत्मस्वरूप को जानते ही नहीं हैं, बतलाए जाने पर भी नहीं जानते हैं। इसलिए इन्हें कुछ बतलाने में परिश्रम करना व्यर्थ है।
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