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आदि परपदार्थों से भिन्न अनुभव करता हुआ भी पूर्व के भ्रान्ति संस्कारों के कारण बाद में भी कभी-कभी भ्रान्त हो सकता है।
अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः ।
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥ ४६ ॥
इस परिस्थिति में अन्तरात्मा व्यक्ति को सोचना चाहिए कि यह जो दृश्य संसार है वह अचेतन है और जो चैतन्य रूप आत्मा है वह अदृश्य है । इसलिए मैं किससे क्रोध करूँ और किसके साथ शान्त रहूँ? इसलिए मैं तो मध्यस्थ भाव धारण करके रहूँगा ।
त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् ।
नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः ॥ ४७ ॥
अज्ञानी बहिरात्मा व्यक्ति बाह्य पदार्थों का त्याग और ग्रहण करता है । जिसे अनिष्ट समझता है उसे छोड़ता है और जिसे इष्ट समझता है उसे ग्रहण करता है। इसके विपरीत आत्म-स्वरूप का ज्ञाता अन्तरात्मा व्यक्ति आध्यात्मिक त्याग और ग्रहण करता है। यानी राग-द्वेष को त्यागता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप निज भावों को ग्रहण करता है। लेकिन इन दोनों से भिन्न शुद्ध स्वरूप में अवस्थित परमात्मा अन्तरंग, बहिरंग आदि किसी पदार्थ का न त्याग करता है और न ग्रहण करता है।
युञ्जीत मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत् । मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम् ॥४८ ॥
आत्मा को मन अर्थात् चित्त से जोड़ना चाहिए। उसे वचन और काया से अलग समझना चाहिए। वचन और काया द्वारा किए गए व्यवहार में चित्त को नहीं लगाना चाहिए।
जगद्देहात्मदृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च।
स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः ॥ ४६ ॥
देह को ही आत्मा समझनेवाले बहिरात्मा व्यक्ति को बाह्य जगत रमणीय और
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