Book Title: Samadhi Tantra
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 17
________________ वाला स्थिर मन ही आत्म-तत्त्व है। इसके विपरीत विक्षिप्त मन आत्म-तत्त्व का विभ्रम है। इसलिए अविक्षिप्त मन को धारण करना चाहिए। विक्षिप्त मन का आश्रय नहीं लेना चाहिए। अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः। तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते॥३७॥ अज्ञान, अज्ञान के अभ्यास और उससे उत्पन्न संस्कारों के कारण मन स्वाधीन नहीं रहता। विक्षिप्त हो उठता है। लेकिन वही ज्ञान के संस्कारों के कारण खुद-ब-खुद आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः। नापमानादयस्तस्य न क्षेपो तस्य चेतसः॥३८ ।। जिसके मन में विक्षेप होता है उसे ही मानापमान की प्रतीति होती है। जिसके मन में विक्षेप नहीं होता उसे मानापमान की अनुभूति ही नहीं होती। यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विनः। तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यत: क्षणात् ।।३६ ।। जब कभी मोहनीय कर्म के उदय से किसी तपस्वी के मन में राग-द्वेष उत्पन्न हो जाएं तब वह उसी समय अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करे, उसकी भावना करे। इससे राग-द्वेषादि क्षण भर में शान्त हो जाएंगे। यत्र काये मुने: प्रेम तत: प्रच्याव्य देहिनम्। बुद्ध्या तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति॥४०॥ अगर देह के प्रति अनुराग उत्पन्न हो तो साधक आत्मा को भेदविज्ञान के आधार पर देह से पृथक् अनुभव करता हुआ अपनी आत्मा को उत्तम यानी चिदानन्द से युक्त अपनी काया में अवस्थित अपने आत्मस्वरूप पर केन्द्रित करे। ऐसा करने से देह के प्रति उपजा अनुराग नष्ट हो जाएगा। 16

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