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व्यक्ति को मोहग्रस्त बहिरात्मा व्यक्ति की सभी अवस्थाएं विभ्रम मालूम पड़ती हैं।
विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते।
देहात्मदृष्टिञ्जतात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते ॥४॥ शरीर को ही आत्मा समझनेवाला बहिरात्मा व्यक्ति सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता होने
और जागृत रहने पर भी कर्म बन्धन से मुक्त नहीं होता। इसके विपरीत आत्म-ज्ञाता अन्तरात्मा व्यक्ति नींद और उन्माद की अवस्था में भी कर्मबन्धन से मुक्त होता है।
यत्रैवाहितधी: पुंस: श्रद्धा तत्रैव जायते।
यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते॥६५॥ जिस विषय में व्यक्ति की बुद्धि संलग्न और सावधान रहती है उस विषय में उसकी श्रद्धा हो जाती है। जिस विषय में उसकी श्रद्धा हो जाती है उसी विषय में उसका चित्त भी लीन हो जाता है।
यत्रानाहितधी: पुंस: श्रद्धा तस्मान्निवर्तते।
यस्मानिवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लय:॥६६ ।। जिस विषय में व्यक्ति की बुद्धि संलग्न और सावधान नहीं रहती उस विषय से उसकी श्रद्धा हट जाती है। तब उस विषय में उसके चित्त की तल्लीनता कहाँ हो सकती है?
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः।
वर्तिर्दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी॥१७॥ जिस प्रकार दीपक से भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बाती दीपक की उपासना करके उसी की तरह हो जाती है उसी प्रकार अपने से भिन्न अरिहन्त सिद्ध रूप परमात्मा की उपासना करके यह आत्मा खुद भी परमात्मा बन जाती है।
उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा।
मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः ॥१८॥ अथवा जिस प्रकार बाँस का पेड़ खुद को खुद से ही रगड़कर आग बनता है उसी प्रकार यह आत्मा खुद अपने चैतन्य स्वरूप की उपासना करके परमात्मा बन जाती है।
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