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य: परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत:।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थिति:।।३१।। जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है। इसलिए स्थिति यह है कि मैं ही अपना उपास्य हूँ, और कोई मेरा उपास्य नहीं है।
प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम्।
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्वृतम् ।।३२ ।। मैंने अपने में ही स्थित परमानन्द से परिपूर्ण स्वयं को (अपनी आत्मा को) विषयों से विमुख कर स्वयं को (अपने आत्म-स्वरूप को) प्राप्त किया है।
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्।
लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तपः॥३३ ।। जो अविनश्वर आत्मा को (नश्वर) देह से भिन्न नहीं समझता, वह घोर तप करके भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता।
आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृतः। तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते।।३४ ।। आत्मा और देह की पृथक्ता के ज्ञान से उत्पन्न आनन्द में डूबे हुए व्यक्ति को तपस्या के घोर कष्टों को सहन करने में कोई खेद नहीं होता।
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम्।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं स तत् तत्त्वं नेतरो जनः॥३५ ।। जिस व्यक्ति के मन रूपी जल को रागद्वेष आदि की लहरें चंचल नहीं कर पातीं, सिर्फ वही व्यक्ति आत्म-तत्त्व को देख पाता है, अन्य कोई व्यक्ति नहीं।
अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः।
धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः॥३६॥ अविक्षिप्त यानी राग द्वेष से रहित और देह तथा आत्मा की पृथक्ता में विश्वास करने
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