Book Title: Samadhi Tantra
Author(s): Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 14
________________ उत्पन्नपुरुषभ्रान्ते: स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम्। तद्वन्मे चेष्टितं पूर्वं देहादिष्वात्मविभ्रमात् ॥२१॥ शरीर को आत्मा समझने का भ्रम होने पर पूर्व में मेरी चेष्टाएं उस व्यक्ति की तरह हुआ करती थीं जिसे वृक्ष के दूंठ में मनुष्य का भ्रम हो गया हो। यथाऽसौ चेष्टते स्थाणौ निवृत्ते पुरुषाग्रहे। तथा चेष्टोऽस्मि देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रमः ॥२२॥ शरीर को आत्मा समझने के भ्रम से मुक्त होने पर अब मेरी चेष्टाएं उस व्यक्ति की तरह हैं जो वृक्ष के दूंठ को मनुष्य समझने के भ्रम से मुक्त हो गया है। येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि। सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहुः ॥२३॥ जिस आत्मा के द्वारा मैं स्वसंवेदन ज्ञान के माध्यम से अपनी आत्मा में ही आत्मा को अनुभव करता हूँवही मैं हूँ। मैंन तो नपुंसकहूँ, नस्त्री हूँ, न पुरुषहूँ, न एकहूँ, नदो हूँऔर न बहुत हूँ। दरअसल मैं निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य स्वरूप होने से लिंगभेद, वचनभेद आदि से परे हूँ। यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थित: पुन:। अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२४॥ जिस शुद्धात्म-स्वरूप के अभाव में मैं नींद में गाफ़िल था और जिसके प्राप्त होने पर मैं जागृत हो गया हूँ वह न तो इन्द्रियों से ग्राह्य है और न शब्दों की पकड़ में आता है। वह तो स्वयं के द्वारा स्वयं का अनुभव करने योग्य है। वही शुद्धात्म-स्वरूप मैं हूँ। क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यत: । बोधात्मानं तत: कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः ॥२५॥ शुद्ध ज्ञान स्वरूप आत्मा को, जो मैं ही हूँ, वस्तुत: अनुभव करने वाले व्यक्ति के इस जन्म में ही राग द्वेष आदि दोष नष्ट हो जाते हैं। इसलिए न मेरा कोई शत्रु है, न मित्र है। 13

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