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मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम् । ' तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वत: ॥१६॥ मैं अनादि काल से इन्द्रियों के कारण अपने आत्म-स्वरूप से हटकर विषयों में फँसता रहा हूँ। उन विषयों को अपना उपकारी समझने के चक्कर में मैंने कभी समझा ही नहीं कि मैं आत्मा ही हूँ।
एवं त्यक्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः।
एष योग: समासेन प्रदीप: परमात्मनः ॥१७॥ बाह्यार्थ वाचक प्रवृत्ति और आभ्यन्तर ऊहापोह को आगे कही जाने वाली रीति के अनुसार सम्पूर्णत: छोड़ देना चाहिए। संक्षेप में यही आभ्यन्तर योग है और यही परमात्मा के स्वरूप का प्रकाशक है।
यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा ।।
जानन्न दृश्यते रूपं तत केन: ब्रवीम्यहम् ।।१८।। जो रूप मुझे दिखाई देता है वह अचेतन होने से कुछ भी नहीं जानता और जो जानता है वह चैतन्य रूप मुझे दिखाई नहीं देता। इसलिए मैं वार्तालाप किससे करूँ?
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पक: ।।१६ ।। मैं जो दूसरों के द्वारा प्रतिपादित किया जाता हूँ और जो कुछ मैं दूसरों को प्रतिपादित करता हूँ वे सब उन्मत्त चेष्टाएं हैं, क्योंकि मैं वाणी के विकल्पों में बंध ही नहीं सकता।
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति ।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।२०॥ जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता और ग्रहण किए हुए (अनन्त ज्ञानादि गुणों) को छोड़ता नहीं तथा जो सब को सब प्रकार से जानता है वही अपने द्वारा ही अनुभव में आने योग्य (शुद्धात्मा) मैं हूँ।
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