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आत्मविभ्रमजं दु:खमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति।
नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः॥४१॥ स्वयं को देह समझने की भ्रान्ति से जो दुःख पैदा होता है वह आत्म-ज्ञान से, आत्मा को देह से पृथक् अनुभव करने से शान्त हो जाता है। जो व्यक्ति इस दिशा में उन्मुख और यत्नशील नहीं होते उन्हें उत्कृष्ट तप करने पर भी निर्वाण प्राप्त नहीं होता।
शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवाञ्छति।
उत्पन्नात्ममतिदेहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम्॥४२॥ शरीर को आत्मा समझनेवाला बहिरात्मा व्यक्ति सुन्दर शरीर और दिव्य भोगों की कामना करता है। इसके विपरीत तत्त्वज्ञानी अन्तरात्मा व्यक्ति इनसे मुक्त होना चाहता है।
परत्राहम्मति: स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम्।
स्वस्मिन्नहम्मतिश्च्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः॥४३ ।। देह आदि परपदार्थों में आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा व्यक्ति अपने आत्मस्वरूप से च्युत होता हुआ निश्चित रूप से कर्मबन्धन में बंधता है। इसके विपरीत अपनी आत्मा में ही आत्मबुद्धि रखने वाला अन्तरात्मा व्यक्ति देह आदि परपदार्थों के सम्बन्ध से च्युत होकर कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।
दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते।
इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम्॥४४ ।। देह को ही आत्मा समझनेवाला अज्ञानी बहिरात्मा व्यक्ति दिखाई देने के आधार पर आत्मा को लिंग (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) रूप मानता है। इसके विपरीत आत्मज्ञानी अन्तरात्मा व्यक्ति मानता है कि वह सिर्फ आत्म-तत्त्व है। अनादि सिद्ध है और उसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि ।
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति ॥४५।। अन्तरात्मा व्यक्ति अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानता हुआ और उसे देह
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