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विश्वसनीय लगता है। परन्तु आत्मा में ही दृष्टि रखनेवाले अन्तरात्मा व्यक्ति को परपदार्थों में न तो विश्वास होता है और न आसक्ति।
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्। कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः ।।५० ।। आत्मज्ञान से इतर कोई भी कार्य बुद्धि में अधिक समय तक नहीं बनाए रखना चाहिए। अगर अपने या दूसरे के उपकार की दृष्टि से काया और वचन के द्वारा कुछ करना ही पड़े तो उसे अनासक्त भाव से करना चाहिए।
यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रिय:।
अन्त: पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम्॥५१॥ जो कुछ (शरीर आदि बाह्य पदार्थों को) मैं इन्द्रियों के द्वारा देखता हूँ वह मैं नहीं हूँ। लेकिन इन्द्रियों के व्यापार को रोककर जिस श्रेष्ठ आनन्दमय ज्ञान प्रकाश को अन्तरंग में देखता हूँ वही मैं हूँ।
सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दु:खमथात्मनि।
बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्म भावितात्मन: ।।५२।। आत्मभावना के अभ्यासी को शुरू में कभी-कभी बाह्य विषयों में सुख और आत्मभावना में दुःख भी मालूम पड़ सकता है। लेकिन भावना का अच्छा अभ्यास हो जाने पर उसे बाह्य विषयों में दु:ख का और आत्मस्वरूप के चिन्तन में सुख का ही अनुभव होगा।
तब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत्।
येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥५३ ।। आत्मभावना का अभ्यास करने वाला व्यक्ति सदैव आत्मस्वरूप का ही कथन करे, आत्मस्वरूप के बारे में ही (दूसरे आत्मज्ञानियों से) पूछे, आत्मस्वरूप को ही पाने की इच्छा करे, आत्मस्वरूप के लिए ही तत्पर रहे। इससे वह अज्ञानमय बहिरात्मरूप से छूटकर ज्ञानमय अन्तरात्म-रूप को प्राप्त कर लेगा।