Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 3
________________ रत्नत्रय विधान स्नत्रय विधान है पच्चीस दोष से विरहित सम्यग्दर्शन । आठ अंगयुत सम्यग्ज्ञान श्रेष्ठ ज्ञानधन ।।३।। तेरहविध चारित्र शुद्ध शिवसुख का साधन । दर्शन ज्ञान चरित्र दिव्य त्रिभुवन में धन-धन ।।४।। तीर्थंकर भी इसको धारण कर हर्षाते। इसके द्वारा भवसागर तर शिवसुख पाते ।।५।। निश्चय निर्विकल्प रत्नत्रय शिवसुखदायी। रत्नत्रय व्यवहार मात्र है सुर सुखदायी ।।६।। अब तक जो भी सिद्ध हए उनको है वन्दन। वर्तमान में जो हो रहे उन्हें अभिनन्दन ।।७।। आगे भी जो होंगे सिद्ध उन्हें अभिनन्दूँ। भूत भविष्यत् वर्तमान सिद्धों को वन्दूँ।।८।। (मानव) मुनि पंचमहाव्रत धारी रत्नत्रय से हो भूषित । रत्नत्रयनिधि को पाकर होते न कभी फिर दूषित ।।९।। रत्नत्रय भवदुःखघाता रत्नत्रय शिवसुखदाता। रत्नत्रय की महिमा से ध्रुव सिद्ध स्वपद मिल जाता ।।१०।। प्रभु महावीर की वाणी रत्नत्रय निधि दर्शाती। जो भी भव्यात्मा होते उनको ही सतत सुहाती ।।११।। मुनिराजों के अंतर में निज अनुभव रस बरसाती। फिर मुक्तिवधू भी इसको ही सादर शीष झुकाती ।।१२।। (दोहा) दर्शन ज्ञान चरित्रमय, यह रत्नत्रययान । ले जाता है सिद्धपुर, देता पद निर्वाण ।।१३।। रत्नत्रय की बाँसुरी, गाती मंगलगान । रत्नत्रय की बीन सुन, करूँ आत्मकल्याण ।।१४।। (सोरठा) रत्नत्रय की भक्ति, सब जीवों को प्राप्त हो। दर्शन ज्ञान चरित्र, सबके उर में व्याप्त हो ।।१५।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् रत्नत्रय महिमा (ताटक) निज चैतन्य स्वरूप आत्मा में श्रद्धा सम्यग्दर्शन । जिसके बल से अल्प तपस्या भी हरती भवदःखक्रन्दन ।।१।। निज चैतन्य स्वरूप आत्मा का ही ज्ञान सुसम्यग्ज्ञान। निज चैतन्य स्वरूप में चर्या चारित्र महान ।।२।। ये रत्नत्रय कहलाता है इक निश्चय इक है व्यवहार । केवल निश्चय रत्नत्रय ही ले जाता भवसागर पार ।।३।। जो संसार मुक्त होना चाहें वे धारें रत्नत्रय । मोक्षमार्ग की प्राप्ति करें वे ध्याएँ निश्चय आत्मनिलय ।।४।। रत्नत्रय बिन पुद्गल जड़ तनप्रेमी तो हैं बहिरात्मा। समकित लेकर अन्तरात्मा हो बन जाते परमात्मा ।।५।। वचन-अगोचर अनुभवगोचर ध्रव चिद्रप सदैव नमन। एक बार के नमस्कार से हो जाता मिथ्यात्व वमन ।।६।। समीचीन विद्या स्वभाव की मुक्ति सखी है वन्दन योग्य। शेष अविद्या लौकिक सारी मुक्तिप्राप्ति के सदा अयोग्य ।।७।। निज अखण्ड रत्नत्रय से मिलता भव्यों को मोक्ष महान । रत्नत्रयधारी मुनिवर ही अष्टकर्म करते अवसान ।।८।। शुद्ध ज्ञानगंगा धारा रत्नत्रय तरु करती सिंचन । महामोक्षफल का दाता है हरता सर्व कर्मबंधन ।।९।। दुष्ट कर्मरूपी वन को यह रत्नत्रय है अग्निसमान। राग स्वरूप सर्प दर्प को भस्म हेतु है मंत्रसमान ।।१०।। चिन्तामणि सम चिन्तित फलदाता दुर्गति करता जारण। पापहरण है सुगतिप्रदाता रत्नत्रय ही सुखकारण ।।११।। यह अतिशय विवेक का दाता नहीं किसी से डरता है। केवलज्ञानप्रकाश दान कर अंधकार सब हरता है।।१२।। पापरूप तरु को कुठारसम पुण्यतीर्थ में श्रेष्ठ प्रधान । इसके आलंबन से मिलता परम श्रेष्ठ पावन निर्वाण ।।१३।। मन वच तन त्रययोग पूर्वक बोलो रत्नत्रय की जय । जो रत्नत्रय के धारी हैं उनकी बोलो जय जय जय ।।१४।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्

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