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निपुण गुणिजन और धनी सेठ-साहूकार रहते थे जिनमें कोड़िधज लखमोचन्द का नाम प्रसिद्ध था। उसके घर हीरां नाम को रूपवती पुत्री ने जन्म लिया। शनैः शनैः समय के साथ अपनी सखियों के बीच गुड्डा गुड्डी का खेल खेलती हुई बचपन की देहली को लांघ, वह यौवन के क्षेत्र में ज्यों ही प्रविष्ट हुई, उसके अंगों में नया निखार, मुख पर भोली लज्जा की अरुणिमा और प्रांखों में चंचलता व्याप्त हो उठी। योवन का चांचल्य बातों में व्यक्त होने लगा और अधरों की बातें नजरों तक आने लगीं, तब माता-पिता ने उसका विवाह अहमदाबाद के धनी सेठ कपूरचन्द के सुपुत्र माणकचन्द के साथ कर दिया। हीरा यौवन की सुख-लालसा का स्वप्न लेकर माणकचन्द के साथ चली गई, परन्तु उस सुन्दरी की इच्छा के अनुकूल वर प्राप्त न होने से वह बड़ी दुःखित रहने लगी और वापिस उदयपुर चली आई।
उन्हीं दिनों निवाई' (जयपुर राज्य) में बगसीराम पुरोहित निवास करता था जो युद्ध और प्रेम दोनों ही कलाओं में समान रूप से प्रवीण था। वह अपने ससुराल बूंदी में आखेट आदि अनेक प्रकार के मनोविनोद करता हुअा सावरण को तीज का आनंद लूट रहा था । इतने में किसी ने उदयपुर की गणगौर को प्रशंसा करते हुये उसे देखने का प्रस्ताव रखा। बगसीराम वहां से अपने साथियों सहित उदयपुर आ पहुँचा और सहेलियों की बाड़ी में डेरा डाल दिया। पीछोला तालाब पर 'गवर' की सवारी देखने के लिये जनता को भीड़ एकत्र हुई तो बगसीराम भी अपने घोड़े पर सवार हो वहां जा पहुंचा। उसके सौन्दर्य और तड़क-भड़क ने सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया । उधर होरां की नजर इस पर पड़ी तो उसने फौरन अपनी चतुर दासी केसरी को संकेत कर उसके पास भेजा और परिचय प्राप्त करने के बाद उसने हीरां की अभिलाषा प्रकट की। पहले तो बगसीराम ने स्वीकृति नहीं दी परन्तु जब उसने हीरां की मनोदशा का, उसके अलौकिक सौन्दर्य का वर्णन किया तो बगसीराम का उन्मत्त यौवन भी उस सुन्दरी को भोगने के लिये लालायित हो उठा।
संकेत के अनुसार निश्चित समय पर बगसीराम अपने घोड़े पर सवार हो रात के समय हीरां के महल में जा पहुंचा। महल को शोभा, साज-सज्जा और उसमें सोलह शृंगार कर बैठी हुई काम भावना की साक्षात् मूर्ति, अप्सरा सी सुन्दरी हीरा ने एकाएक उसे अपनी ओर खींच लिया। रात भर रति-विलास करने के पश्चात् जब पुरोहित रवाना होने लगा तो हीरां के लिये विदाई के वे १ - कथा में पुरोहित का निवास स्थान कहीं निवाई और कहीं नरवर मिलता है।
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