Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ किन्तु सहयोगी संस्कृतियों में समन्वय के पक्ष को उजागर करने का प्रशंसनीय कार्य किया है। साध्वी चरणप्रभाजी स्थानकवासी आम्नाय के आचार्य प्रवर श्री जीतमलजी म.सा. की परम्परा की विदुषी साध्वीरत्न श्री शीलप्रभाश्रीजी म.सा. की शिष्या हैं। आपकी शोधपरक दृष्टि व अध्ययन में रुचि देखते हुए लगता है कि भविष्य में इसी प्रकार की अन्य योजनाएं भी हाथ में लेंगी। यह एक सुखद बात है कि जैन समाज का साध्वी वर्ग अध्ययन व शोध कार्यों में पिछले दशक से विशेष रुचि ले रहा हैं प्राकृत भारती की शोध प्रबन्धों के प्रकाशन क्रम की एक और कड़ी के रूप में यह प्रेरणास्पद शोध प्रबन्ध पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। पुस्तक के दस अध्यायों में लेखिका ने भारत की दो प्राचीनतम स्वतन्त्र विचारधाराओं-सनातन तथा जैन के सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक व आध्यात्मिक सभी पहलुओं को समेटा है। सामान्य पाठक के लिए जहाँ यह रोचक सामग्री सिद्ध होगी, वहीं शोधार्थियों के लिए प्रेरणादायक तथा संदर्भ की दृष्टि से बहुउपयोगी। . देवर्षि कलानाथजी शास्त्री, जो भाषा व संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान हैं, ने पुस्तक की विषय वस्तु व भावना के अनुरूप विद्वत्तापूर्ण तथा प्रेरणादायक भूमिका लिखी है जो आज के कुंठाग्रस्त एवं संकीर्ण वातावरण को उद्वेलित कर उदारता का मार्ग प्रशस्त करती है। प्राकृत भारती दोनों विद्वज्जनों के प्रति आभार प्रकट करती है। साध्वीजी की प्रेरणा से चन्दा-मीना व्यवस्थापिका समिति, तांदली (महाराष्ट्र) ने संयुक्त प्रकाशक के रूप में जो सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए भी हम उनका आभार प्रकट करते हैं। हमें आशा है कि यह पुस्तक सामान्य पाठक तथा मनीषीगण समान रूप से सराहेंगे। महोपाध्याय विनयसागर निदेशक प्राकृत भारती अकादमी

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 308