Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 5
________________ प्रकाशकीय . भारतीय संस्कृति समन्वय की वह उर्वरा भूमि है, जहाँ कोई भी विचारधारा अपना बीज बो सकती है, वह नष्ट नहीं होगा, अवश्य पल्लवित होगा, किन्तु वृक्ष, पत्ते, फूल और फल का जो रूप होगा वह अनूठा होगा। वह अपनी स्वतन्त्र इयत्ता बनाये रखने पर भी अन्य विचार-धाराओं से इतना कुछ लेन-देन कर चुका होगा कि उसमें सभी की छाया झलकेगी। साथ ही उसकी छाया भी सभी विचारधाराओं में झलकने लगेगी। समन्वय और सह-अस्तित्व की यह धारा संभवतः अनादिकाल से चली आ रही है। जैसा कि प्रकृति का नियम है-प्रत्येक वस्तु विकास-हास की निरन्तर प्रवाहमय श्रृंखला में डूबती उतराती है। हमारी संस्कृति ने भी अंधकार और निराशा के ऐसे कालखण्ड देखे हैं जहाँ परस्पर विरोध, वितण्डा, संघर्ष आदि हुए हैं और पतन भी। पर हर बार अन्ततः समन्वय और सहनशीलता कंचन बन निखरे हैं। आज भी हम एक संक्रमण युग में जी रहे हैं। सांस्कृतिक व सामाजिक उथल-पुथल, विरोध-संघर्ष आदि दैनन्दिन बातें हो गई हैं, किन्तु फिर भी किन्हीं वातायनों में समन्वय की समीर बह रही है। इस विश्वास के साथ कि : यह संघर्ष भी क्षण स्थायी है। इस प्रदूषण को सहअस्तित्व और सहनशीलता की बयार धीरे-धीरे बहां ले जाएगी। .. समन्वय की इस पताका को उठाये रखने वालों में वे लोग भी हैं जो भारतीय संस्कृति के उन अंगों पर शोधरत हैं, जहाँ समन्वय के साक्ष्य जुटाये जा सकते हैं और नई पीढ़ी को उस प्रक्रिया से अवगत कराया जा सकता / है, जो बौद्धिक और आध्यात्मिक आदान-प्रदान के द्वारा सामाजिक शान्ति की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करती है। - इसी विद्या का शोध प्रबन्ध डॉ. साध्वी चरणप्रभाश्रीजी का पुराणों में जैन धर्म / इसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि लेखिका कोई विश्वविद्यालयी तथाकथित तटस्थ विद्वान नहीं है अपितु एक सम्प्रदाय विशेष में साधनारत विद्वान है। ऐसा होने पर भी उन्होंने साम्प्रदायिक आग्रह से मुक्त हो विशुद्ध ऐतिहासिक व पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर दो स्वतन्त्र (iii)

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