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प्रवचनसार
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द्वारा अनादिनिधन, कारणरहित, असाधारण और स्वसंवेदन ज्ञानकी महिमा सहित केवल आत्माको अपने आपमें वेदन करता है -- अनुभव करता है उसी प्रकार श्रुतकेवली भी क्रमशः परिणमन करनेवाली कुछ चैतन्य शक्तियोंसे सुशोभित श्रुतज्ञानसे पूर्वोक्त विशिष्ट आत्माको अपने आपमें वेदन करता है, इसलिए इन दोनोंमें वस्तुस्वरूप जाननेकी अपेक्षा समानता है, सिर्फ प्रत्यक्ष परोक्ष और ज्ञायक शक्तियोंके तारतम्यकी अपेक्षा ही विशेषता है । । ३३ ।।
आगे श्रुतके निमित्त ज्ञानमें जो भेद होता है उसे दूर करते हैं --
सुत्तं जिणोवदिट्ठ, पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं ।
'तज्जाणणा हि णाणं, सुत्तस्स य जाणणा भणिया । । ३४ ।।
पुद्गल द्रव्यस्वरूप वचनोंके द्वारा जिनेंद्र भगवानने जो उपदेश दिया है वह द्रव्यश्रुत है, निश्चयसे उसका जानना भावश्रुत ज्ञान है और व्यवहारसे कारणमें कार्यका उपचार कर उस द्रव्यश्रुतको भी ज्ञान कहा है। इस उल्लेखसे यह सिद्ध हुआ कि सूत्रका ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है, यदि कारणभूत श्रुतकी उपेक्षा कर दी जावे तो ज्ञान ही अवशिष्ट रहता है। वह ज्ञान केवली और श्रुतकेवलीके आत्मसंवेदनके विषय में तुल्य ही रहता है। अतः उनके ज्ञानमें श्रुतनिमित्तक विशेषता नहीं होती । । ३४ ।।
आगे आत्मा और ज्ञानमें कर्ता और करणगत भेदको दूर करते हैं
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जो जादि सो णाणं, ण हवदि णाणेण जाणगो आदा ।
गाणं परिणमदि सयं, अट्ठा णाणट्टिया सव्वे ।। ३५ ।।
जानता है वह ज्ञान है, आत्मा ज्ञानके द्वारा ज्ञायक नहीं है, किंतु वह स्वयं ही ज्ञानरूप परिणमन करता है और सब पदार्थ ज्ञानमें स्वयं स्थित रहते हैं।
आत्मा ज्ञप्तिक्रियाका कर्ता है और ज्ञान स्वयं उसका करण है। आत्मा गुणी है, ज्ञान गुण है। गुणगुणीमें प्रदेशभेद नहीं है इसलिए आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है। जिस प्रकार अग्नि और उष्णता अभेद है उसी प्रकार आत्मा और ज्ञानमें अभेद है ।। ३५ ।।
आगे ज्ञान क्या है? और ज्ञेय क्या है? इसका विवेक करते हैं।
तम्हा णाणं जीवो, णेयं दव्वं तिधा समक्खादं ।
दव्वंति पुणो आदा, परं च परिणामसंबद्धं । । ३६ ।।
चूँकि जीव और ज्ञानमें अभेद है अतः जीव ज्ञानस्वरूप है और अतीत अनागत वर्तमान अथवा उत्पाद व्यय ध्रौव्यके तीन प्रकार परिणमन करनेवाला द्रव्य ज्ञेय है। • ज्ञानका विषय है । फिर जीव तथा पुद्गल आदि पाँच अजीव पदार्थ परिणमनसे संबद्ध होनेके कारण द्रव्य इस व्यवहारको प्राप्त होते हैं।
१. तं जाणणा