Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 36
________________ १६२ कुन्दकुन्द-भारती अस्तिनास्ति अवक्तव्यरूप होता है।।२३।। __ आगे सदुत्पाद और असदुत्पादके समर्थनमें जीवकी जिन मनुष्यादि पर्यायोंका उल्लेख किया गया है वे मोहक्रियाके फल हैं और इसकारण वस्तुस्वभावसे पृथक् हैं ऐसा कथन करते हैं -- एसोत्ति णत्थि कोई, ण णत्थि किरिया सहाव णिवत्ता। किरिया हि णत्थि अफला, धम्मो जदि णिप्फलो परमो।।२४।। यह पर्याय टंकोत्कीर्ण -- अविनाशी है ऐसा नर नारकादि पर्यायोंमें कोई भी पर्याय नहीं है और रागादि अशुद्ध परिणतिरूप विभाव स्वभावसे उत्पन्न हुई जीवकी अशुद्ध क्रिया नहीं है यह बात भी नहीं है, अर्थात् वह अवश्य है। तथा चूँकि उत्कृष्ट वीतराग भावरूपी परम धर्म निष्फल है अर्थात् नर नारकादि पर्यायरूप फलसे रहित है अतः जीवकी रागादि परिणमनरूप क्रिया फलरहित नहीं है, अर्थात् सफल है, ये नर नारकादि पर्याय उसी क्रियाके फल हैं। ऊपर जीवकी जिन नर नारकादि पर्यायोंका कथन किया है वे सब अनित्य हैं तथा मोह क्रियासे जन्य हैं अतः शुद्ध निश्चयकी अपेक्षा जीवसे भिन्न हैं तथा छोड़ने योग्य हैं।।२४ ।। आगे मनुष्यादि पर्याय जीवकी क्रियाके फल हैं ऐसा प्रकट करते हैं -- कम्म णामसमक्खं, सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं, णेरइयं वा सुरं कुणदि।।२५।। नाम नामक कर्म अपने स्वभावसे जीवके स्वभावको अभिभूत कर -- आच्छादित कर जीवको मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव कर देता है। यद्यपि जीवका शुद्ध स्वभाव निष्क्रिय है तथापि संसारी दशामें उसका वह स्वभाव नाम कर्मके स्वभावसे अभिभूत हो रहा है अतः उसे मनुष्यादि पर्यायोंमें भ्रमण करना पड़ता है, वास्तवमें जीव इन प्रपंचोंमें परवर्ती है।।२५।। आगे इस बातका निर्धार करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायोंमें जीवके स्वभावका अभिभव -- आच्छादन कैसे हो जाता है -- णरणारयतिरियसुरा, जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता। ण हि ते लद्धसहावा, परिणममाणा सकम्माणि ।।२६।। मनुष्य नारकी तिर्यंच और देव इस प्रकार चारों गतियोंके जीव निश्चयसे नामकर्मके द्वारा रचे गये हैं और इसलिए वे अपने अपने उपार्जित कर्मोंके अनुरूप परिणमन करते हुए शुद्ध आत्मस्वभावको प्राप्त नहीं होते हैं। यद्यपि मनुष्यादि पर्याय नामकर्मके द्वारा रचे गये हैं, फिर भी इतने मात्रसे उनमें जीवके स्वभावका

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