Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 39
________________ प्रवचनसार णाणं अत्थवियप्पो, कम्मं जीवेण सं समारद्धं । तमणेगविधं भणिदं, फलत्ति सोक्खं व दुक्खं वा ।। ३२ ।। पदार्थका विकल्प -- स्वपरका भेद लिये हुए जीवाजीवादि पदार्थोंका तत्तदाकारसे जानना ज्ञान है, जीवने जो प्रारंभ कर रखा है वह कर्म है, वह कर्म शुभाशुभादिके भेदसे अनेक प्रकारका है और सुख अथवा दुःख कर्मका फल है। जिस प्रकार दर्पण एक ही कालमें घटपटादि विविध पदार्थोंको प्रतिबिंबित करता है उसी प्रकार ज्ञान एक ही कालमें स्वपरका भेद लिये हुए विविध पदार्थोंको प्रकट करता है। इस प्रकार आत्माका जो ज्ञान भावरूप परिणमन है उसे ज्ञानचेतना कहते हैं । जीव, पुद्गल कर्मके निमित्तसे प्रत्येक समय जो शुभ अशुभ आदि अनेक भेदोंको लिये हुए भाव कर्मरूप परिणमन करता है उसे कर्मचेतना कहते हैं तथा जीव, अपने-अपने कर्मबंधके अनुरूप जो सुख दुःखादि फलोंका अनुभव करता है उसे कर्मफलचेतना कहते हैं।।३२।। -- आगे ज्ञान कर्म और कर्मके फल अभेद नयसे आत्मा ही है इसका निश्चय करते हैं अप्पा परिणामप्पा, परिणामो णाणकम्मफलभावी । १६५ -- तम्हा णाणं कम्मं, फलं च आदा मुणेयव्वो ।। ३३ ।। आत्मा परिणामस्वरूप है परिणमन करना आत्माका स्वभाव है और वह परिणाम ज्ञान, कर्म और कर्मफल रूप होता है, इसलिए ज्ञान, कर्म तथा कर्मफल ये तीनोंही आत्मा हैं ऐसा मानना चाहिए। यद्यपि यसे आत्मा परिणामी है और ज्ञानादि परिणाम है, आत्मा चेतक अथवा वेदक है और ज्ञानादि चेत्य अथवा वेद हैं तथापि अभेद नयकी विवक्षासे यहाँ परिणाम और परिणामीको एक मानकर ज्ञानादिको आत्मा कहा गया है ऐसा समझना चाहिए ।। ३३ ।। आगे इस अभेद भावनाका फल शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्ति है यह बतलाते हुए द्रव्यके सामान्य कथनका संकोच करते हैं. -- कत्ता करणं कम्मं, फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं, जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं । । ३४ ।। कर्ता, कर्म, करण और फल आत्मा ही हैं ऐसा निश्चय करनेवाला मुनि यदि अन्य द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्माको प्राप्त कर लेता है ।। ३४ ।। इस प्रकार द्रव्यसामान्यका वर्णन पूर्ण कर अब द्रव्यविशेषका वर्णन प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम द्रव्यके जीव और अजीव भेदोंका निरूपण करते हैं -- दव्वं जीवमजीवं, जीवो पुण चेदणोपयोगमयो । पोग्गलदव्वप्पमुहं, अचेदणं हवदि य अजीवं । । ३५ ।।

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