Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 46
________________ १७२ ___ कुन्दकुन्द-भारती जिस प्रकार काल द्रव्य एक ही समयमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन करता है उसी प्रकार सब समयमें परिणमन करता है।।५१।। आगे कालद्रव्य अप्रदेश है इसका यह अर्थ नहीं है कि उसमें एक भी प्रदेश नहीं होता। यहाँ अप्रदेशका अर्थ एकप्रदेशी है। यदि कालद्रव्यको एकप्रदेशी न माना जाय तो उसका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। यह बतलाते हैं -- जस्स ण संति पदेसा, पदेसमेत्तं व तच्चदो णाएं। सुण्णं जाण तमत्थं, अत्यंतरभूदमत्थीदो।।५२।। जिस द्रव्यमें बहुत प्रदेश नहीं हैं अथवा जो परमार्थसे एकप्रदेशी भी नहीं जाना जा सकता है अर्थात् जिसमें एक भी प्रदेश नहीं है अस्तित्वसे बहिर्भूत उस पदार्थको तुम शून्य जानो। पदार्थका अस्तित्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे होता है तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रदेशों पर निर्भर हैं। अतः जिस द्रव्यमें एक भी प्रदेश नहीं होगा उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। यतः कालद्रव्य अस्तित्वरूप है अत: उसे एकप्रदेशी मानना चाहिए। अप्रदेशका अर्थ द्वितीयादि प्रदेशसे रहित समझना चाहिए।।५२।। इस प्रकार ज्ञेय तत्त्वको कहकर अब ज्ञान ज्ञेयके विभागसे आत्माका निश्चय करना चाहते है, अत: सर्वप्रथम आत्माको परभावोंसे जुदा करनेके लिए उसके व्यवहार जीवत्वके कारण दिखलाते सपदेसेहिं समग्गो, लोगो अटेहिं णिट्ठिदो णिच्चो। जो त्तं जाणदि जीवो, पाण'चदुक्काहिसंबद्धो।।५३।। यह लोक अपने प्रदेशोंसे परिपूर्ण है, जीवाजीवादि पदार्थोंसे भरा हुआ है और नित्य है। इसे जो जानता है तथा इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणोंसे संयुक्त है वह जीव है। यद्यपि जीव निश्चयसे स्वतःसिद्ध परमचैतन्यरूप निश्चयप्राणसे जीवित रहता है तथापि यहाँ व्यवहारकी अपेक्षा उसे इंद्रियादि चार बाह्य प्राणोंसे जीवित रहनेवाला बतलाया है। वह भी इसलिए कि इन सर्वगम्य बाह्य प्राणोंसे अल्पज्ञ मनुष्य भी जीवको लोकके अन्य पदार्थोंसे अत्यंत भिन्न समझने लगे।।५३।। अब वे चार प्राण कौन हैं? यह स्वयं ग्रंथकार बतलाते हैं -- इंदियपाणो य तधा, बलपाणो तह य आउपाणो य। आणप्पाणप्पाणो, जीवाणं होंति पाणा ते।।५४।। १. पाणचउक्केण संबद्धो , ज. वृ.

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