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प्रवचनसार
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वही क्रिया करना प्रायश्चित्त है और जो साधु अंतरंग संयमभंगरूप उपयोगसे सहित है वह जिनमतमें व्यवहार क्रियामें चतुर किसी अन्य मुनिके पास जाकर आलोचना करे तथा उनके द्वारा बतलाये हुए प्रायश्चित्तका आचरण करे।
बहिरंग और अंतरंगके भेदसे संयमका भंग दो प्रकारका है -- जहाँ प्रमादरहित ठीक ठीक प्रवृत्ति करते हुए भी कदाचित् शारीरिक क्रियाओंमें भंग हो जाता है उसे बहिरंग संयमका भंग कहते हैं। इसका प्रायश्चित्त यही है कि उस भंगकी आलोचना करे तथा पुनः वैसी प्रवृत्ति न कर पूर्ववत् ठीक ठीक आचरण करे। जहाँ उपयोगरूप संयमका भंग होता है उसे अंतरंग संयमका भंग कहते हैं। जिस मुनिके यह अंतरंग संयमका भंग हुआ हो वह जिनप्रणीत आचारमार्गमें निपुण किसी निर्यापकाचार्यके पास जाकर छलरहित अपने दोषोंकी आलोचना करे और वे निर्यापकाचार्य जो प्रायश्चित्त दें उसका शुद्ध हृदयसे आचरण करे। ऐसा करनेसे ही छूटा हुआ संयम पुनः प्राप्त हो जाता है।।११-१२।।
आगे मुनिपदके भंगका कारण होनेसे परपदार्थों के साथ संबंध छोड़ना चाहिए ऐसा कहते हैं
अधिवासे य विवासे, छेदविहूणो भवीय सामण्णे।
समणो विहरद णिच्चं, परिहरमाणो णिबंधाणि।।१३।। मुनि, मुनिपदमें अंतरंग और बहिरंग भंगसे रहित होकर निरंतर परपदार्थोंमें राग द्वेषपूर्ण संबंधोंको छोड़ता हुआ गुरुओंके समीपमें अथवा किसी अन्य स्थानमें विहार करे।
नवदीक्षित साधु अपने गुरुजनोंसे अधिष्ठित गुरुकुलमें निवास करे अथवा अन्य किसी स्थानपर। परंतु वह सदा मुनिपदके भंगके कारणोंको बचाता रहे और बाह्य पदार्थोंमें राग द्वेषरूप संबंधको छोड़ता रहे अन्यथा उसका चारित्र मलिन होनेकी संभावना रहती है।।१३।। आगे आत्मद्रव्यमें संबंध होनेसे ही मुनिपदकी पूर्णता होती है ऐसा उपदेश करते हैं --
चरदि णिबद्धो णिच्चं, समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि।
पयदो मूलगुणेसु य, जो सो पडिपुण्णसामण्णो।।१४।। जो मुनि ज्ञानमें तथा दर्शन आदि गुणोंमें लीन रहकर निरंतर प्रवृत्ति करता है और पूर्वोक्त मूलगुणोंमें निरंतर प्रयत्नशील रहता है उसीका मुनिपना पूर्णताको प्राप्त होता है।
सच्चा श्रमण -- साधु-- मुनि वही है जो बाह्य पदार्थोंसे हटकर शुद्ध ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप स्वस्वभावमें निरंतर लीन रहता है। तथा अट्ठाईस मूलगुणोंका निरतिचार पालन करता है।।१४।।
आगे मुनिपदके भंगका कारण होनेसे मुनिको प्रासुक आहार आदिमें भी ममत्व नहीं करना चाहिए यह कहते हैं --